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________________ २०४ आनन्द प्रवचन : भाग ८ कदापि नहीं कहे जा सकते हैं। वे मुढ़ हैं, घोर तामसिक हैं । इसीलिए जे-एफ-क्लार्क ने सत्साहस के साथ सद्-असद्विवेकबुद्धि और कर्तव्यज्ञान का होना अनिवार्य बताता है "Conscience is the root of all true courage ; if a man would be brabe let him obey his conscience." -सद्-असद् विवेक बुद्धि या कर्तव्य ज्ञान सत्साहस की जड़ है। अगर कोई व्यक्ति बहादुर हो तो उसे अपनी सद्-असद् विवेक बुद्धि की आज्ञा में चलना चाहिए। महात्मागाँधीजी का अंग्रेजों से कोई द्वष या विरोध नहीं था, उनका विरोध था, उनकी शोषण नीति पक्षपात और अधिकारों के अपहरण के प्रति । इसीलिए वे ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जब-जब सत्याग्रह करते थे, तब-तब सविनय और अहिंसक ढंग का करते थे। तोड़-फोड़, दंगे, लूटपाट आदि हिंसक ढंग उन्हें अपने सत्साहस के साथ कतई इष्ट न था, क्योंकि उनकी सद्-असद्विवेक बुद्धि उन्हें ऐसा करने से रोकती थी। शिवाजी मुगल सल्तनत के अधीन न होने के लिए उसके खिलाफ लड़े, कई किले जो मुगल सरकार के अधीन हो गये थे, उन्हें जीते भी सही, किन्तु साथ ही मुस्लिम जनता को लूटना, अत्याचार करना, उनके अधिकार छीनना या उनकी बहन बेटियों की इज्जत लुटना, उन्हें कतई इप्ट न था, और न उन्होंने ऐसा करके अपनी वीरता को कलंकित किया। इसीलिए पाश्चात्य विद्वान् Froude (फाउडे) लिखता है “Courage is, on all hands, considered as an essential of high character." -सर्वतोमुखी साहस उच्चचारित्र की सौरभ के समान समझा जाता है । शिवाजी के समक्ष जब उनका एक सैनिक जीते हुए मुस्लिम राज्य के एक सेनाध्यक्ष की सुन्दर युवती पत्नी को लेकर उपस्थित हुआ तो उन्होंने उसे देखते ही कहा-'अगर मेरी माता इतनी सुन्दर होती तो मैं भी सुन्दर होता । इस महिला को क्यों लाए हो ? इसे ससम्मान वापस पहुँचा दो।" यह है, सत्त्ववान् का जीवन, जिसमें साहस और शौर्य तो है, पर धर्म, नीति और चारित्र के विरुद्ध नहीं। इसलिए सत्त्ववान् वीर या बहादुर तो होता है, पर क्रूर, अत्याचारी या हिंसक नहीं । सत्त्ववान् न्यायी तो होता है, अन्यायी नहीं । सत्त्ववान् पराक्रमी तो होता है, पर आक्रमणकारी नहीं। सत्त्ववान् प्रेमी होता है, पर कामी नहीं। वह सत्यार्थी होता है, पर तिकड़मबाज नहीं। सत्त्ववान् साहसी तो होता है, पर निर्दय, लुटेरा, डकैत या बलात्कार करने वाला नहीं । सत्त्ववान् विवेकी होता है, पर अन्धविश्वासी या अन्धी दौड़ लगाने वाला नहीं। वह उत्साही होता है, परन्तु अन्धानुकरण करने वाला नहीं। सत्त्ववान् पुरुषार्थी और अध्यवसायी होता है, परन्तु विपरीत दिशा में वह पुरुषार्थ या अध्यवसाय नहीं करता। वह तेजस्वी होता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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