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________________ २०६ आनन्द प्रवचत : भाग ८ ८. धर्म पर उसकी अडिग निष्ठा हो । दानादि धर्म के अवसरों को ना चूकता हो । ९. वह अनिश्चय - स्वभावी, तथा बात-बात में शंकाशील न हो, अन्धविश्वासों और कुरूढ़ियों से दूर रहे । १०. अर्थ और धर्म या काम और धर्म की लड़ाई में वह सदैव धर्म के पक्ष में रहे, उधर ही झुके । ११. वह धर्म पर दृढ़ता के लिए क्रम से चले । सत्त्ववान् जीवन के कुछ उपादेय सूत्र हैं, जिन्हें अपनाने पर ही सत्त्ववान् ढ़ धर्मी बन सकता है । सत्त्ववान् के विशेष गुणों और लक्षणों को समझने के लिए एक प्राचीन उदाहरण लीजिए— श्रीवासनगर के राजा नरवाहन का पुत्र ललितांग अत्यन्त सत्त्ववान्, मनोबली और दृढ़ धर्मी था । विवेक, बुद्धि, कला कुशलता एवं धर्मज्ञता उसे बपौती में मिली थीं । किशोर राजकुमार अनेक गुणों के साथ-साथ दान देने में भी अत्यन्त शूरवीर था । जहाँ किसी दुःखी, अभावपीड़ित या भूखे-प्यासे याचक को देखता ललितांगकुमार अपना सब खेल छोड़कर उसे मुक्त हस्त से दान देता था। जिस दिन कोई दान लेने वाला न आता, उस दिन को वह निष्फल बीता समझता था । राजकुमार ललितांग का एक सेवक था, जिसका नाम तो सज्जन था, परन्तु वह निरा दुर्जन था । राजकुमार उसे अच्छी तरह रखता था, किन्तु वह दुष्ट उसका बुरा करने का सोचता था, फिर भी सरल स्वभावी राजकुमार उसे छोड़ता न था । एक दिन राजकुमार के विनय आदि गुणों से हर्षित होकर राजा ने उसे एक बहुमूल्य हार दिया । हार लेकर राजकुमार अपने महल की ओर आ रहा था कि रास्ते में एक अत्यन्त दीन-हीन याचक मिल गया । उदार दानशील राजकुमार ने वह हार उस याचक को दे दिया । सज्जन ने झटपट राजा से जाकर नमकमिर्च लगाकर राजकुमार की शिकायत की। राजा को बहुत बुरा लगा। राजा ने उसे एकान्त में बुलाकर शिक्षा दी - " पुत्र ! तुममें अनेक गुण हैं, फिर भी मैं तुम्हें एक बात कहता हूँ, सुनो ! यह सारा राज्य तुम्हारा ही है । परन्तु तुम्हारा कर्तव्य है कि दिनोंदिन राज्य की समृद्धि में वृद्धि करो, प्रमाद न करो, निरन्तर सावधान रहो, किसी का सहसा विश्वास न करो। तुम बहुत ही कुशल हो, दान देने में वीर हो, परन्तु अभी तुम्हें राज्य चलाना है, साधु नहीं बनना है कि तुम सारा खजाना लुटा दो। इसलिए मेरा कहा मानकर थोड़ा-थोड़ा दान दो । धन की आवश्यकता पद-पद पर रहती है । इसलिए उपार्जित द्रव्य का मनमाना उपयोग करना उचित नहीं हैं ।" राजा की ये शिक्षावचन सुनकर कुमार अपने आपको धन्य मानने लगा । राजा की शिक्षा के अनुसार ललितांगकुमार अब थोड़ा-थोड़ा दान देने लगा । एक बार कुछ याचकों ने मिलकर ललितांग से कहा - " राजकुमार ! चिन्तामणि सरीखे होकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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