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________________ सत्त्ववान् होते दृढ़धर्मी २०१ था। आप तो मेरे पिता के समान हैं। आप ही के पुण्यप्रसाद और सत्प्रयत्नों से मैं आज यह शुभ दिन देख सका हूँ। मैं ही नहीं, सारा मारवाड़ आपका चिरऋणी रहेगा।" महासत्त्व बड़ी से बड़ी विपत्ति में पड़कर भी अपने धर्म से च्युत नहीं होते। महासती चन्दनबाला दासी के रूप में धनावह सेठ के यहाँ रहती थी। अपना धर्मपालन करती हुई वह सुख से रहती थी। श्रेष्ठिपत्नी मूला की आँखों में चन्दना काँटे-सी खटकती थी। उसने एक दिन मौका पाकर चन्दना का सिर मुडवा कर, एक कच्छा पहनाकर हाथ-पैरों में हथकड़ियाँ-बेड़ियाँ डालकर उसे अंधेरे तलघर में पटक दिया। तीन दिन तक उसे भूखी-प्यासी रखी। परन्तु चन्दनबाला ने अपनी उत्तम प्रकृति से विकृत होने का परिचय नहीं दिया, बल्कि अपनी मालकिन मूला सेठानी का उपकार ही माना । वह अपने धर्म से जरा भी विचलित न हुई। . दृढ़धर्मी किसे कहा जाए ? इस संसार में अनेक प्रकार की रुचि, प्रकृति और आस्था वाले मानव हैं, वे सभी एक या दूसरे प्रकार से धर्म (अहिंसा, सत्य, ईमानदारी आदि) का आचरण करते हैं, परन्तु हमें सोचना है कि इनमें से दृढ़धर्मी कौन है ? किसके जीवन में धर्म की नींव सुदृढ़ है ? ___ एक व्यक्ति है, वह इसलिए धर्म पर चलता है कि उसके सामने इस लोक और परलोक का भय है। उससे कोई कहता है कि अपने व्यवसाय में तस्करी, चोर बाजारी, बेईमानी, मिलावट, नापतौल में गड़बड़ी अथवा चोरी, जारी, लूटपाट आदि करके क्यों नहीं मालामाल हो जाते ? क्या रखा है इस धर्म-कर्म में ? इससे तो तुम्हारा परिवार भूखों मरेगा।" वह उत्तर देता है-भाई ! वैसे तो धर्म-कर्म कुछ नहीं है, ये चोरी आदि जो कुछ भी शीघ्र धनवान बनने के उपाय हैं, उन्हें अजमाने का मन होता है। पर क्या करूँ ? मन में डर है कि अगर कहीं पकड़ा गया, तो बर्बाद हो जाऊँगा, इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी। जेल में सड़ना पड़ेगा, भारी सजा भोगनी पड़ेगी। इसलिए सरकार और समाज का भय जो है। वही मुझे ऐसे भयंकर साहसिक कर्म करने से रोकते और धर्म पर चलने को बाध्य करते हैं।' मतलब यह है, ऐसे व्यक्ति का जीवन यहाँ सरकार और समाज के और परलोक में नरक के दण्ड के भय से धर्म पर चलता है। सहज धर्ममय जीवन नहीं है । दूसरा व्यक्ति मिलता है, उससे भी वह यही सवाल पूछता है कि "भाई ! इतने दुःखी क्यों हो रहे हो ? इस दुर्दशा से छुटकारा पाने के लिए चोरी एवं अनीति के कर्म क्यों नहीं कर लेते ? चोरी, तस्करी, बदमाशी, डाकेजनी, गिरहकटी आदि क्यों नहीं कर लेते ? वह कहता है-भाई ! मन में आता है कि ये सब काम करके अच्छी पूँजी इकट्ठी कर लूं, जिससे बुढ़ापे में सुख से जिन्दगी कट सके। परन्तु आज समाज में मेरी जो इज्जत है, मुझे लोग ईमानदार कहते हैं, ईमानदार मुझ पर विश्वास Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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