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________________ २०० आनन्द प्रवचन : भाग ८ करै न कबहू साहसी, दीन-हीन-सा काज | भूख सह वर घास को, नहि खावै मृगराज ॥ ( वृन्द ) इन दोनों में निहित सत्य तथ्य से कोई इन्कार नहीं कर सकता । जोधपुर नरेश जसवन्तसिंह के निधन के बाद औरंगजेब ने उनके उत्तराधिकारी के रूप में महाराजा अजितसिंह को अस्वीकार कर दिया। वीरवर दुर्गादास के संरक्षण में अजितसिंह का लालन-पालन, शिक्षा-दीक्षा, संस्कार प्रदान आदि हुए । बादशाह ने अजितसिंह को हथियाने हेतु वीरवर दुर्गादास को ८ हजार स्वर्ण मुद्राओं का प्रलोभन भी दिया, मगर दुर्गादास उसके सामने न झुका । बादशाह ने दूसरा पासा फेंका, कि अजितसिंह का लालन-पालन शाही महलों में हो परन्तु अविश्वस्त होने से राजपूत सरदारों ने ऐसा न होने दिया । अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी वीर दुर्गादास ने अजितसिंह की रक्षा की, इतना ही नहीं, उसे एक सुयोग्य शासक बनाकर मारवाड़ का राज्य दिलवा दिया । । जहाँ चारों ओर स्वामिभक्त दुर्गादास की प्रशंसा गाथाएँ गायी जा रही थीं, वहाँ महाराजा अजितसिंह ने उन पर अभिभावक के रूप में स्वयं को पीड़ा देने और कठोर नियन्त्रण रखने का दण्ड घोषित किया - "मिट्टी का एक फूटा ठीकरा लेकर जोधपुर की गलियों में घूमिये और भीख माँगकर पेट भरिए, यही दण्ड आपके लिए पर्याप्त है ।" परन्तु दुर्गादास ने मुँह से एक शब्द भी न निकाला। वे महाराजा को अभिवादन करके चुपचाप चल दिये। सबके मन में महाराजा के लिए धिक्कार था, पर राजा के आगे बोले कौन ? उसी दिन से दुर्गादास का सदा के लिए वही क्रम चालू हो गया । उनके मन में भिक्षाटन का दुःख न था, अपितु स्वधर्म पालन का सन्तोष था । एक दिन महाराजा अजितसिंह घोड़े पर बैठे राजमहलों की ओर आ रहे थे । उधर से भिखारी के रूप में बीरवर दुर्गादास को देखकर आँखें तरेरते हुए उन्होंने पूछा - "कहिए आप प्रसन्न तो हैं ? " महासत्त्व वीरवर दुर्गादास बोले – “आज मेरी प्रसन्नता का क्या ठिकाना ? मेरे नियन्त्रण में पले एक सुयोग्य शासक को समृद्ध देखकर मेरी आत्मा प्रसन्न है । अगर मैंने उस समय इतना कठोर नियन्त्रण न किया होता, तो बहुत सम्भव है, मैं बादशाह औरंगजेव के प्रलोभन में आकर बहुत धन भी पाता और मनमाने गुलछर्रे भी उड़ाता । लेकिन एक अन्यायी और अयोग्य शासक को पाकर सारा मारवाड़ गुलाम और वीरान बन जाता। इसलिए मैंने अपने धर्मपालन के इतना सब कष्ट सहा, जिसका मुझे सन्तोष है । .... " दुर्गादास की बात सुनते ही अजितसिंह की आँखों में आंसू उमड़ पड़े । घोड़े से कूद कर उन्होंने वीर दुर्गादास के पैर पकड़ लिए। गिड़गिड़ाते से बोले – “मैंने आपके स्वामिभक्ति रूप धर्म की परीक्षा लेने के लिए इतने कठोर दण्ड का स्वांग रचा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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