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________________ १६६ आनन्द प्रवचन : भाग ८ का विवेक कपाट खुल गया । उसने अपने पति को अफीम लेने का न कहकर धर्म पर दृढ़ रहने का कहा । नतीजा यह हुआ कि एक-दो दिन में ही उस काँग्रेसी भाई का स्वास्थ्य ठीक हो गया । तब से उनकी धर्म पर आस्था दृढ़ हो गई और वह प्राकृतिक जीवन जी कर स्वस्थ एवं दीर्घायु हुए । सत्वान् की दृढ़-धर्मिता यद्यपि सच्चे सत्ववान् दृढधर्मी दुनिया में विरले ही हैं, फिर भी जो सत्त्वशाली होते हैं, वे धर्म पर इसका दृढ़ रहते हैं कि मन में, स्वप्न में भी धर्म से डिगने की बात नहीं सोचते, वचन से धर्म से विचलित होने की बात किसी को कहते नहीं और न ही काया द्वारा धर्म से भ्रष्ट होते हैं । वे एकान्त में या एकान्तप्रदेश क्षेत्र में होंगे तो भी पाप नहीं करते, अपने पर प्रहार होने पर भी जो दूसरों को जान से मार डालने की बात नहीं सोचते, जो सिर कट जाने पर भी असत्य भाषण या असत्याचरण नहीं करते; जो रास्ते में चाहे सोना, रत्न, मणि-मणिका आदि बहुमूल्य पदार्थ भी क्यों न पड़े हों, उठाते नहीं, न उन पर अधिकार करते हैं । जो निन्दा - स्तुति में रुष्ट - तुष्ट नहीं होते, नवयुवती को देखकर मन को जरा भी विकृत नहीं होने देते, अपने हक के बिना या जरूरत के बिना कोई भी चीज ग्रहण करने या मूर्च्छा-पूर्वक संग्रह करने का विचार नहीं करते । विदेश या परदेश जाने पर भी अपने धर्म को नहीं भूलते। कोई कितना ही भय दिखाए या प्रलोभन दे, वे अपने धर्म का त्याग करने को तैयार नहीं होते । भर्तृहरि ने नीतिशतक में ऐसे सत्त्ववान् पुरुषों के पथ का निर्देश इन शब्दों में किया है "प्राणाघातान्निवृत्तिः परधनहरणे संयमः, सत्यवाक्यम् । काले शक्त्या प्रदानं, युवतिजन - कथा मूकभावः परेषाम् ॥ तृष्णास्त्रोतोविभंगो, गुरुषु च विनयः सर्वभूतानुकम्पा । सामान्यं सर्वशास्त्रेष्वनुपहतविधिः श्रयसामेष पन्थाः || ” प्राणघात से विरति पर धनहरण करने पर संयम, सत्य भाषण, यथावसर यथाशक्ति दान देना, परस्त्री या युवतियों के विषय में कामकथा करने में मौन रहना, तृष्णा के स्रोत का भंग करना, गुरुजनों का विनय, समस्त प्राणियों के प्रति अनुकम्पा रखना, समस्त धर्मशास्त्रों में विहित सामान्य धर्म के विधान से भ्रष्ट न होना; सत्ववन्तों द्वारा समस्त श्रेयों का यही मार्ग है । मतलब यह है कि जो अपने स्वीकृत सत्य पर, न्याय पर, प्रेम पर दृढ़ रहता है, आफतों और मुसीबतों में भी अहिंसा, सत्य, ईमानदारी, अचौर्य, नैतिकता, शील और अपरिग्रहवृत्ति आदि धर्म के अंगों को नहीं छोड़ता, मित्रों और स्वजनों के द्वारा मोह एवं स्वार्थवश अत्याग्रह किये जाने पर भी अपने धर्म, नियम, व्रत एवं त्याग के संकल्प से नहीं डिगता, किसी के द्वारा डराने-धमकाने, यहाँ तक कि प्राण ले लेने तक का भय दिखाने पर भी अपने धर्म को छोड़ने को तैयार नहीं होता, और न ही राज्य, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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