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________________ साधु-जीवन की कसोटी : समता १८७ सन्तुलन खो देता है परिस्थितियों के सामने घुटने टेक देता है तो समझ लो, उस साधक के जीवन में समत्व प्रतिष्ठित नहीं हुआ। समत्व प्रतिष्ठित होता है, समभाव या सामायिक के अभ्यास से । समत्व प्रतिष्ठित हो जाने पर साधक-गृहस्थ हो या साधु, कैसी भी विकट परिस्थिति या संकटापन्न वातावरण क्यों न हो, घबराता नहीं है। वह परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को ढाल लेता है। इसीलिए आचार्य अमित. गति ने सामायिक पाठ में भगवान् से प्रार्थना की है "दुःखे सुखे वैरिणि बन्धुवर्गे योगेवियोगे भवने वने वा। निराकृताशेषममत्वबुद्ध समं मनो मेऽस्तु सदापि नाथ !" हे नाथ ! दुःख हो या सुख, वैरी हो या बन्धुवर्ग हो, इष्ट का वियोग हो या अनिष्ट का संयोग, महल हो या जंगल; सर्वत्र सभी परिस्थितियों में समग्र ममत्वबुद्धि का परित्याग करके मेरा मन सदैव सम रहे। ममत्वबुद्धि होने पर ही इष्टवियोग और अनिष्ट संयोग में मनुष्य घबड़ा जाता है, मानसिक सन्तुलन खो बैठता है, समत्त्व को भूल जाता है। इसलिए साधक समत्व के द्वारा ही परिस्थितियों पर नियन्त्रण रख सकता है। __ अब सबसे महत्वपूर्ण समता का उल्लेख आपके सामने कर दूं-वह है प्राणिमात्र के प्रति समता। यही समस्त समताओं में मूर्धन्य है। इस एक समत्व के होने पर सारे पाप, सभी अनिष्ट, बुराइयाँ अथवा खुराफातें वन्द हो जाएगी। हिंसा आदि की प्रवृत्ति मनुष्य तभी करता है, जब वह दूसरों को पराया समझता है, मान-अपमान रागद्वेष कषाय आदि की सभी प्रवृत्तियाँ दूसरों को आत्मीय न समझने पर होती हैं । इसीलिए सामायिक साधना में इसी पर अधिक जोर दिया गया है। जो समो सव्वभूएसु तसेसु थावरेसु य । तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं ॥ -जो त्रस और स्थावर समस्त प्राणियों पर सम है, समभाव रखता है, उसी का वह समभाव सामायिक होता है, यह केवलज्ञानियों द्वारा भाषित है। प्राणिमात्र पर समता हुए बिना क्या भगवान महावीर चण्डकौशिक सर्प और अनार्यदेश निवासी मनुष्यों के पास जा सकते थे ? प्राणिमात्र के प्रति जिसके हृदय में समत्व-आत्मौपम्य स्थापित हो जाता है, वह क्रूर से क्रूर प्राणी के पास जाने से घबराता नहीं । दशवकालिक सूत्र में प्राणिमात्र के प्रति समत्व का सुपरिणाम बताया गया है "सव्वभूयप्पभूयस्स समं भूयाइं पासओ। पिहियासवस्स दंतस्स पावकम्मं न बंधई ॥" जो सर्वभूतात्मभूत (सब प्राणियों में मैं हूँ, मेरे में सभी प्राणी हैं, इस प्रकार तादाम्य सम्बन्ध से ओतप्रोत) हो गया है, समस्त प्राणियों को समभाव से देखता है, आश्रव द्वारों (कर्मों के आगमन के स्रोतों) को जिसने बन्द कर दिये हैं, जो दान्त है, उसके पापकर्मों का बन्धन नहीं होता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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