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________________ १८८ आनन्द प्रवचन : भाग ८ सचमुच, जब साधक षट्कायिक प्राणियों को आत्मवत् समझने लगता है, तब आत्मौपम्य से ओतप्रोत उस साधक का जीवन निष्पाप, निर्द्वन्द्व, निर्भय और पवित्र बन जाता है | भगवद्गीता में भी इसी बात का समर्थन किया गया है सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि । ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥२६॥ आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ! सुखं वा यदि वा दुःखं, स योगी परमोमतः ॥ ३२॥ --- अध्याय ६ अर्थात् — जो अपने आपको समस्त प्राणियों में स्थित देखता है तथा आत्मा में समस्त प्राणी देखता है, ऐसा सर्वव्यापी अनन्तचेतन में आत्मौपम्यभाव से युक्त आत्मा वाला साधक सर्वत्र समदृष्टि होता है । हे अर्जुन ! जो समस्त प्राणियों में आत्मौपम्य भाव से सम देखता है, सुख या दुःख को भी सब में सम देखता है, वह योगी परमश्रेष्ठ माना गया है । बन्धुओ ! प्राणिमात्र के प्रति समत्व की कसौटी यह है कि किसी भी अनिष्ट प्राणी को देखने पर भी वह उसे शत्रु की दृष्टि से नहीं, मित्र की दृष्टि से, आत्मीयजन की दृष्टि से देखता है । जब उसको कोई कष्ट होता है, तो उसका असर उस प्राणिमात्र के प्रति समत्वनिष्ठ व्यक्ति पर भी पड़ता है । कहते हैं, कार्तिकेय ने जब देवदास वृक्ष को जरा-सा खरौंच लिया तो पार्वती के चेहरे पर खरौंच लग गई थी । इसी प्रकार एक बैल की पीठ पर किसी ने लाठी से प्रहार किया था, उसका निशान एवं उसका संवेदन श्री रामकृष्ण परम हंस की पीठ पर हो गया था । नामदेव को उसकी मां ने एक दिन काढ़े के लिए जस्टी पलाश की छाल उतार कर ले आने के लिए कहा । नामदेव ने कुल्हाड़ी से छाल उतारी, फिर सोचा कि जरा अपने पैर की छाल उतार कर देखूं तो सही कि कैसी वेदना होती है । बस, उसने अपने पैर पर कुल्हाड़ी चलाकर उसकी चमड़ी छील कर देखा, पीड़ा तो हुई, पर नामदेव ने उसे समभाव पूर्वक सह ली । घर आया तो मां ने धोती में खून के धब्बे लगे देख कर उलाहना दिया । परन्तु नामदेव तो उसी दिन से "दूसरे प्राणियों को भी अपनी ही तरह सुख-दुःख होता है", इस आत्मौपम्य या आत्मसमन्वय को समझ चुका था । प्राणि समभाव उसके विचारों में प्रकट हो चुका था । ये समता के कुछ पाठ हैं, जिन्हें समतानिष्ठ बनने वाला साधक पढ़ता है, और जीवन में उतारता है । समता का आचरण करने वाला साधक निर्भय, निष्ठावान, सहिष्णु एवं वात्सल्य वृत्ति होता है । उसके हृदय में राग द्वेष, ईर्ष्या, छलकपट, वैर-विरोध या पक्षपात नहीं होता । वह सबका मंगल सोचता है, मंगल ही देखता, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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