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आनन्द प्रवचन : भाग ८
"राम कहो रहमान कहो कोऊ कान्ह कहो महादेवरी ।
पारसनाथ कहो कोऊ ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वयमेवरी ॥" इस प्रकार राम आदि सबको पर ब्रह्मस्वरूप बताया है। आचार्य हरिभद्र ने दृष्टि भेद मिटाकर निष्पक्ष रूप से कहा है
"पक्षपातो न मे वीरे, न द्वषः कपिलादिषु ।
युक्तिमद् वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥" मेरा न तो महावीर के प्रति कोई पक्षपात है, और न ही सांख्यमत प्रवर्तक कपिल आदि ऋषियों के प्रति कोई द्वेष है। जिसके भी वचन युक्तिसंगत हों, उनको ग्रहण कर लेना चाहिए।
जब किसी ने यह प्रश्न उठाया कि विभिन्न धर्मसम्प्रदायों के साधुओं के अलग-अलग वेष हैं, साधु श्रावकों के क्रियाकाण्डों में भी अन्तर है, उनके देव (संस्थापक, प्रवर्तक या आराध्य अवतार आदि) भी अलग-अलग हैं, फिर इनमें समभाव और समन्वय कैसे स्थापित हो सकता है, इसके उत्तर में जैनाचार्य स्पष्ट कहते हैं__ "नाशाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे, न च तत्त्ववादे न च तर्कवादे ।
न पक्षपाताश्रयणेन मुक्तिः, कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव ॥"
न तो दिगम्बरत्व से मुक्ति होती है, न श्वेताम्बरत्व से, न तत्त्वों के वादविवाद से मुक्ति हो सकती है, न तर्कवितर्क करने से । न किसी पक्ष का आश्रय करने से ही मुक्ति होती है, मुक्ति तो क्रोधादि कषायों से मुक्त होने पर ही होती है।
इसी के प्रतिफल के रूप में एक महान् समभावी जैनाचार्य हरिभद्रसूरि कहते हैं
"सेयंबरो वा आसंबरो वा बुद्धो वा तहव अन्नोवा ।
समभाव भाविअप्पा लहइ मुक्खं न संदेहो ॥" चाहे कोई श्वेताम्बर हो, चाहे दिगम्बर, चाहे कोई बौद्धधर्मी हो या अन्य धर्मावलम्बी हो, मैं दावे के साथ कहता हूँ कि समभाव से जिसकी आत्मा भावित है, वह अवश्य ही मोक्ष प्राप्त करता है।
मतलब यह है कि चाहे कोई किसी भी धर्म-सम्प्रदाय का अवलम्बन लेकर चलता हो, अपने-अपने धर्म-सम्प्रदाय के क्रियाकाण्डों, नियमोपनियमों या आचारों का पालन करता हो, परन्तु जब तक उसकी दृष्टि, बुद्धि और विचार में समभाव नहीं आ जाएगा, राग-द्वेष और कषायों का उपशमन होकर व्यवहार में भी समन्वयमूलक समभाव नहीं आ जाएगा, तब तक उसके लिए मोक्ष दूरातिदूर है। जीवन में सांगोपांग समभाव आने पर ही मोक्ष का द्वार खुलता है ।
इसी प्रकार मानव-जीवन में ऊँची-नीची परिस्थितियाँ आने पर कई प्रकार के अनुकूल-प्रतिकूल उतार-चढ़ाव आने पर साधक यदि समभावपूर्वक नहीं रहता, अपना
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