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________________ साध जीवन की कसौटी : समता १७३ 'लाभालाभे सुहे दुक्खे जीविए मरणे तहा। समो णिदा-पसंसासु तहा माणावमाणओ ॥" साधुपुरुष लाभ और अलाभ में, सुख और दुःख में, जीवित और मरण में, निन्दा और प्रशंसा में तथा सम्मान और अपमान में सम रहे । कितना सुन्दर तथ्य शास्त्रकार ने हमारे सामने प्रस्तुत कर दिया है। साधु दो प्रकार के होते हैं-एक गृहस्थ जीवन में अणुव्रती साधक साधु और एक मुनिजीवन में महाव्रती उच्च-साधक साधु । दोनों के जीवन में लाभ और अलाभ में सम रहने की वृत्ति होनी चाहिए। महाव्रती साधु को अपने संयमी जीवनयापन के लिए आहार, पानी, वस्त्र, पात्र, पुस्तक आदि वस्तुओं की आवश्यकता रहती है, इसके अतिरिक्त भावात्मक दृष्टि से प्रतिष्ठा, प्रशंसा, त्याग-प्रत्याख्यान की प्रेरणा की सफलता, धर्मप्रचार में सफलता आदि की प्राप्ति की भी मन्द-मन्द इच्छा साधक में छद्मस्थ अवस्था तक रहती है। भौतिक दृष्टि से तथा भावात्मक दृष्टि से दोनों प्रकार की वस्तुओं की प्राप्ति हो, चाहे किसी अन्त रायकर्म के कारणवश न हो; मुनि को दोनों ही अवस्थाओं में समभावी रहना आवश्यक है। वह किसी अभीष्ट एवं आवश्यक वस्तु के न मिलने पर यह विचार करे अज्जेवाऽहं न लब्भामि अवि लाभो सुए सिया ? -आज मुझे वह चीज प्राप्त नहीं हुई, इससे क्या ? कल शायद वह मिल भी जाये ? अणुव्रती गृहस्थ साधक को भी अपने जीवन में लाभ-अलाभ में सम रहने का सतत अभ्यास करना है। उसे अपने गार्हस्थ-जीवन में धन और साधनों की जरूरत रहती है । धन और साधन न मिलने पर साधारण गृहस्थ तिलमिला उठता है, अथवा धन आदि के चले जाने या घाटा लग जाने की स्थिति में वह शोक-मग्न होकर आर्तध्यान करने लगता है। इस प्रकार लाभ न होने पर या प्राप्त अभीष्ट धन या साधन का वियोग होने पर वह तड़फने लगता है । परन्तु साधुचरित अणुव्रती गृहस्थ लाभ हो या अलाभ इष्ट वस्तु का संयोग हो या वियोग, दोनों ही अवस्थाओं में सम रहता है, वह अपना सन्तुलन नहीं खोता । __एक सन्त के पास कोई भक्त आया और सविनय पूछने लगा-महात्मन् ! ऐसा कोई उपाय बताइए, जिससे मानसिक शक्ति प्राप्त हो ! संत ने उसे नगर के एक श्रेष्ठी के पास यह कहकर भेज दिया कि "उसके पास जाने से तुम्हें शान्ति का सर्वोत्तम सक्रिय उपाय मिल जायेगा।" श्रेष्ठी के पास आकर भक्त ने कहा- "मुझे अमुक सन्त ने आपके पास शान्ति प्राप्ति का बोध पाने के लिए भेजा है । अतः आप मुझे शान्ति का मार्ग बताइए । सेठ ने समागत अतिथि को ऊपर से नीचे तक देखकर कहा - "कुछ दिन आप मेरे पास रहिए और देखते रहिए, आपको स्वतः शान्ति का वास्तविक मार्ग हाथ लग जाएगा।" भक्त कुछ दिन वहाँ रहकर देखता रहा । सेठ ने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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