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आनन्द प्रवचन : भाग ८
उसे न कुछ भी पूछा और न कहा । वह रात-दिन अपने धंधे में जुटा रहता। सैकड़ों आदमी आते-जाते, मुनीम-गुमाश्ते बहियाँ खोल कर सेठ के सामने बैठे रहते । भक्त अधीर होकर सोचने लगा—यह सेठ तो खुद ही रातदिन माया के चक्कर में फंसा है, इसे स्वयं को शान्ति नहीं तो मुझे यह कहाँ से शान्ति का मार्ग बताएगा ? संत ने कहाँ भेज दिया मुझे ?" एक दिन सेठ बैठा था, भक्त भी पास ही बैठा था; इतने में घबराता हुआ मुनीम आया और बोला-"सेठजी ! गजब हो गया ! अमुक जहाज, जिसमें दस लाख का माल लदा आ रहा था, बन्दरगाह पर नहीं पहुंचा। पता लगा है, कहीं समुद्री तूफानों से घिर कर डूब गया है ।"
सेठ ने गम्भीरतापूर्वक कहा- "मुनीमजी ! शान्त रहो, क्यों परेशान होते हो? डूब गया तो क्या हुआ ? कोई अनहोनी तो है नहीं ! प्रयत्न करने पर भी माल न बचा तो नहीं बचा । जैसा होना था, हुआ । अब घबराने से क्या लाभ ?" इस बात को कुछ ही दिन बीते कि एक दिन मुनीमजी दौड़े-दौड़े आए। वह खुशी में नाच रहे थे-सेठजी ! सेठजी ! खुशखबरी ! वह जहाज किनारे पर सुरक्षित पहुँच गया है।" माल उतरने से पहले ही भाव दुगुना हो गया। वह बीस लाख में बिक गया है।" सेठ फिर भी शान्त एवं गम्भीर था। सेठ ने पहले की तरह उसी शान्त मन से कहा 'ऐसी क्या बात हो गई ? कोई अनहोनी तो कुछ नहीं हुई ! फिर व्यर्थ ही फूलना, इतराना और नाचना किस बात पर ? ये हानि और लाभ तो अपनी नियति से होते रहते हैं । हम क्यों इनके पीछे रोयें और हंसे ?' भक्त ने सेठ का समभाव से ओतप्रोत व्यवहार देखा तो उसका अन्तःकरण प्रबुद्ध हो उठा। क्या गजब का आदमी है। दस लाख का घाटा हुआ तब भी शान्त और बीस लाख का मुनाफा हुआ, तब भी शान्त ! दैन्य और अहंकार तो इसे छू भी नहीं गया। कहीं रोमांच भी नहीं हुआ ! यह गृहस्थ होकर भी साधु है। उसने सेठ के चरण छू लिए और कहा-"जिस शान्तिपथ की खोज में मुझे यहाँ भेजा था, वह मुझे साक्षात् मिल गई है । जीवन में समता से ही शान्ति प्राप्त हो सकती है। यह गुरुमंत्र मुझे प्राप्त हो गया।" सेठ ने कहा "जिस गुरु ने आपको यहाँ भेजा है, उसी गुरु का उपदेश मुझे मिला है। मैंने कभी अपने भाग्य पर अहंकार नहीं किया और न दुर्भाग्य में कभी अफसोस किया। हानि-लाभ के चक्र में मैं समभापूर्वक अपने को सिर्फ निमित्त मानकर चलता हूँ। इसलिए लाभ और अलाभ में न मुझे हर्ष और अहंकार होता है, और न ही शोक
और दैन्य । मैं समभाव की पगडंडी पर चलता हूँ।" इसी बात का गीता ने समर्थन किया है
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य, नोविजेत् न चाप्रियम् ।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मवित् ब्रह्मणिस्थितः ॥ -प्रिय (मनोज्ञ) वस्तु को पाकर हर्षित न हो, अप्रिय को पाकर उद्विग्न न हो, ऐसा स्थिर बुद्धि असम्मूढ़ व्यक्ति ब्रह्मवेत्ता है वही परब्रह्म में स्थित है।
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