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________________ १७२ आनन्द प्रवचन : भाग ८ ___ 'करेमि भंते ! सामाइयं' "हे भगवन् ! मैं सामायिक अंगीकार करता हूँ। यह दीक्षा के समय का मुख्य पाठ है, जो यह सूचित करता है कि साधु-जीवन आजीवन समता से ओतप्रोत होना चाहिए। समता साधु के अंग-अंग में, रग-रग में, उसके विचार और आचार में रम जानी चाहिए। मन, वचन, और काया का कोई भी कौना ऐसा न रहे, जो समता से रहित हो । समता उसके स्वभाव, व्यवहार और जीवन की हर प्रवृत्ति में दूध और पानी की तरह घुलमिल जानी चाहिए । वह समता के ही स्वप्न देखे, समता की ही पुष्पवाटिका में विचरण करे, समता की प्रयोगशाला में, अध्ययन, मनन, निरीक्षण, आलोचन और परीक्षण करे । वह रातदिन देखे-परखे, नापे-तौले कि मेरे जीवन में समता कहाँ तक आ पायी है । मैं समता को जीवन के किस आचार, व्यवहार में कहाँ तक रमा पाया हूँ। समता मेरे जीवन में किस विभाग में या व्यवहार में अभी तक पर्याप्त-रूप से नहीं आ पायी है ? साधु का ओढ़ना-बिछाना, पहनना, सोना, खाना-पीना चलना-फिरना, बोलना आदि सभी क्रियाएँ समता को दृष्टिगत रख कर हों। तभी समझना कि यहाँ साधु-जीवन है। सन्त कबीर ने साधु के लक्षण बताते हुए कहा है दया, गरीबी, बन्दगी, समता, शील स्वभाव । एते लच्छन साधु के कहे 'कबीर' सद्भाव ॥ आशा तजे, माया तजे, मोह तजे अरु मान । हर्ष-शोक, निन्दा तजे, कहे कबीर सन्त जान । इन दो दोहों में बताए हुए सत्य से आप भली-भांति समझ गए होंगे कि साधु-जीवन में समता का कितना महत्त्व है। सचमुच, समता साधु-जीवन का मुख्य अंग है । साधु, सन्त, या श्रमण की पहचान केवल सिर मुंडा लेने, नग्न रहने, तिलक छापे लगा लेने, या केवल भगवान का नाम रटने से नहीं है, साधु की वास्तविक पहिचान समता से होती है। इसीलिए उत्तराध्ययन सूत्र के २४वें अध्ययन में स्पष्ट कहा है 'समयाए समणो होई' समता से ही कोई साधक श्रमण होता है, सन्त होता है। साधु-जीवन में और सब क्रियाएँ हों, किन्तु समता न हो तो, वह सच्चे माने में साधु-जीवन नहीं माना जा सकता। साधु-जीवन में समता कहाँ कहाँ हो ? प्रश्न यह होता है कि साधुचरित पुरुष जब समता से पहचाना जाता है तो समता उसके जीवन में कहाँ-कहाँ हो ? वह कहाँ-कहाँ सम रहे ? प्रश्न बड़ा ही महत्वपूर्ण है। उत्तराध्ययनसूत्र में बहुत ही सुन्दर ढंग से इसका समाधान मिलता है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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