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________________ सज्जनों का सिद्धान्तनिष्ठ जीवन १६६ राधाकृष्णन् शिक्षा आयोग के सुझावों के आधार पर भारत सरकार ने ग्रामों में उच्चशिक्षा के प्रबन्ध के लिए १० शिक्षण संस्थाओं में से प्रत्येक को वार्षिक दो लाख अनुदान देने का तय किया उनमें से नानाभाई भट्ट की 'लोकभारती' भी थी । परन्तु • अनुदान के साथ शर्त यह थी कि संस्था में शिक्षण का माध्यम अंग्रेजी होना चाहिए ।" इसका विरोध करते हुए आचार्य नानाभाई ने स्पष्ट कहा - ' आपको अनुदान देना हो तो दे, मेरी संस्थाका माध्यम तो गुजराती ही रहेगा ।" आचार्यजी ने संस्था के छात्रों व अध्यापकों को एकत्र करके अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए कहा - चनाचबेना खाकर संस्था की सेवा करने की जिनमें निष्ठा हो, वे ही यहाँ रहें, जिनको बड़ी-बड़ी पदवियों और प्रमाणपत्रों की आशा हो, वे अन्य संस्थाओं में जा सकते हैं । द्रव्यलोभ के लिए हमें अपने सिद्धान्तों का बलिदान कदापि नहीं करना है । भले ही द्रव्य के अभाव में हमें संस्था पर ताला लगाना पड़े ।" यह था सैद्धान्तिक विचारों के अनुरूप आचरण की दृढ़ता ! आठवाँ और सबसे महत्वपूर्ण गुण जो सिद्धान्तनिष्ठा के लिए होना चाहिए, वह है-उपसर्गों (संकटों) और अवरोधों के समय दृढ़ता । नदी को सागर तक पहुँचने में अनेकों अवरोधों एवं कष्टों का सामना करना पड़ता है । बड़ी-बड़ी चट्टानों से टक्कर लेना पड़ता है । लेकिन अवरोधों से टकराने में नदी के प्रवाह में तेजी आ जाती है । नदी अपना बहना जारी रखती है । इसी प्रकार सिद्धान्तनिष्ठ साधक को भी लक्ष्य तक पहुँचने में अनेक परिषहों, कष्टों, उपसर्गों विरोधों एवं विघ्न-बाधाओं का सामना करना अनिवार्य होता है । सिद्धान्तनिष्ठ मनस्वी इन विरोधों, रुकावटों या कष्टों को ही अपनी प्रगति और सफलता की फसल के लिए खाद बना लेते हैं । विरोध या संकट उनके उत्साह को बढ़ा देता है । वे विरोधों एवं संकटों की परवाह न करते हुए एकाग्रता पूर्वक लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं । प्रतिपक्षी लोग सुनकर विरोध करते हैं, मखौल उड़ाते हैं, उन्हें तरह-तरह से यातनाएँ देते हैं, कई लोग उनकी परीक्षा भी करते हैं । भगवान् महावीर का एक श्रमणोपासक था - कामदेव | उसने भगवान महावीर से श्रावकव्रत अंगीकार किये थे । वह अपने धर्म और सिद्धान्त पर दृढ़ था । एकबार कामदेव श्रावक की धर्माचरण में दृढ़ता की परीक्षा करने के लिए एक देव आया । कामदेव उस समय पौषधशाला में पौषधव्रत लिये था । देव ने पहले तो उसे प्रलोभन से डिगाना चाहा. लेकिन जब वह न डिगा तो उसने विकराल रूप बनाकर भय दिखाया और धर्म छोड़ने को कहा । इसमें सफल न हुआ तो उसने कामदेव के टुकड़े-टुकड़े करने की धमकी थी, तत्पश्चात् उसके लड़के को तलवार से टुकड़े करने का दृश्य उपस्थित किया । इतने पर जब वह विचलित न हुआ तो उसने कामदेव के सामने उसकी माता को मारने और टुकड़ें करने का जब उपक्रम किया तो उसका धैर्य जाता रहा । वह तुरन्त बचाने के लिए उठा, जोर से चिल्लाया मगर देव अदृश्य हो गया । माँ दौड़कर आई "बेटा ! क्या हो गया ?" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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