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सज्जनों का सिद्धान्तनिष्ठ जीवन
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जिसे देखकर ऐसा मालूम होता था, मानो उसे सिंह ने मारा हो । वह योगी वेषधारी । देव प्रत्येक राहगीर को यही कहता कि "राजा के लड़के को सिंह ने मार डाला है।" खबर उड़ती-उड़ती राजा के पास पहुँची। परन्तु जब किसी को भी रोते-चिल्लाते आते हुए न देखा, तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। वह स्वयं शहर की ओर चला । मार्ग में उसे राजा की दासियाँ मिली तो उन्हें भी शेर द्वारा राजकुमार को मारे जाने की सूचना दी। दासियों ने कहा-जो जन्मा है, वह मरेगा ही, इसमें क्या नई बात है ? और जो मर ही गया उसके लिए शोकमग्न होकर बैठने से क्या लाभ है ?"
दासियों को खुदगर्ज बताकर योगी (देव) आगे बढ़ा कि पूजा-सामग्री लिये सखियों के साथ आती हुई रानी को देखा। रानी की शान्त-मुद्रा को देखकर योगी को और भी आश्चर्य हुआ। फिर भी सहानुभूति बताते हुए उसने रानी से कहा-“मेरी कुटिया के पास शेर द्वारा राजकुमार को मारने का करुण दृश्य देखकर मुझे तो रोना आता है।" रानी ने योगी की ओर देखकर कहा-"योगीजी ! आपने संसार तो त्याग दिया, पर संसार का मोह नहीं छोड़ा, इसी कारण ऐसी बातें कह रहे हैं।" यों कहकर आगे चल दी।
योगी ने सोचा-पुत्र के मरने का शोक तो राजा को होगा, क्योंकि उसका राजसिंहासन सूना हो जायगा। अतः जल्दी कदम बढ़ाकर सीधा राजा के पास पहुँचा। आँखों में आँसू भरकर बोला- "राजन् ! खेद है कि आपका इकलौता बेटा भी भगवान ने छीन लिया। कितनी करुण घटना है यह !" योगी के वचन सुनकर राजा बोला-"योगीजी ! आप योगी बनकर पुनः संसार की मोहमाया में क्यों लिपट रहे हैं । मोह से पतन होता है।" योगी वेशधारी देव ने समझ लिया कि राजा स्वयं तो निर्मोह के सिद्धान्त पर दृढ़ है ही, उसका सारा परिवार यहाँ तक कि दासदासियाँ तक भी निर्मोह के सिद्धान्त के रंग में रंगे हुए हैं।" उसने अपना असली रूप धारण कर निर्मोही राजा से क्षमा माँगी।
वास्तव में सिद्धान्तनिष्ठ व्यक्ति इस प्रकार का निर्मोही होता है। उसका देह-गेह, कुटुम्ब-परिवार धन-सम्पत्ति का मोह उपशान्त हो जाता है।
सिद्धान्त क्या, क्यों, कैसे ? प्रश्न यह होता है कि सिद्धान्त क्या है ? जिसके लिए प्रशंसा के इतने फूल चढ़ाए गये हैं, जिसे अपनाने के लिए सिद्धान्तनिष्ठ व्यक्ति इतने तत्पर रहते हैं, अपने प्राणों की बाजी भी जिस सिद्धान्त के लिए लगा देते हैं, वह है क्या चीज ?
संस्कृत व्याकरण के विद्वानों ने सिद्धान्त की व्याख्या इस प्रकार की है-- वादि प्रतिवादिभ्यां निर्णीतोऽर्थः सिद्धः। सिद्धः अन्ते योऽसौ सिद्धान्तः ।
अर्थात्-वादी और प्रतिवादी दोनों के द्वारा जमकर वाद-विवाद करने के बाद जो अर्थ-जो बात निश्चित की जाती है, वह है-सिद्ध-अर्थ, बहरहाल, जो अन्त में सिद्ध-अर्थ हो वही सिद्धान्त है।
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