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________________ १५८ आनन्द प्रवचन : भाग ८ मांगी एवं दो दिव्य कुण्डल भेंट देकर चला गया । यह है सिद्धान्त के रंग में रंगा हुआ निष्ठावान जीवन ! सिद्धान्तनिष्ठ व्यक्ति की मोह-विरति दरअसल सिद्धान्तनिष्ठ व्यक्ति में मोह की मात्रा अत्यन्त कम हो जाती है । न उसे आवश्यकताओं और नैतिक मर्यादाओं का अतिक्रमण करके धन कमाने और जमा करने का मोह रहता है और न ही उसे सन्तान पैदा करने का मोह सताता है। उसे ऐश-आराम या आरामतलब की जिन्दगी पसन्द नहीं होती, न उसे अवारागर्दी या व्यर्थ के सैरसपाटे का शौक होता है। उसे अपनी प्रसिद्धि और प्रशंसा का मोह नहीं होता वित्तषणा, पुत्रषणा और लोकषणा ये तीनों एषणाएँ सिद्धान्तनिष्ठ व्यक्ति को नीचे गिराती हैं, इसलिए वह इन तीनों एषणाओं पर विजय प्राप्त कर लेता है। जब इन तीनों एषणाओं से ऊपर उठ कर उसका जीवन सिद्धान्त के लिए समर्पित हो जाता है, तब उसे अपने आप को अवतार, भगवान, अध्यात्मयोगी, आचार्य या धर्म नेता कहलाने की ख्वाइश या आकांक्षा ही नहीं होती, न उसे धनाढ्य, सत्ताधारी या उच्च अधिकारी, अथवा दानवीर, बहादुर या परम विद्वान कहलाने अथवा पहुँचे हुए महात्मा, सिद्ध पुरुष, या परम सुन्दर चमत्कारी बाबा कहलाने की ही इच्छा होती है । अपने निश्चित सिद्धान्तों के सहारे चल कर स्वाभाविक जीवन जीने की उसकी इच्छा होती है। उसे इस संसार में अपने लाखों अनुयायी बनाने, अपने पैर पुजाने, ऐश करने या लोगों को आकर्षित करने की उसकी तनिक भी कामना नहीं होती। वह ऐसे तिकड़मबाज, चमत्कारी, धर्मध्वजी, और लोगों को चकमा देने वाले व्यक्तियों के चंगुल में भी कभी नहीं फंसता, वह किसी भी मूल्य पर अपने देव, गुरु और धर्म पर श्रद्धा या विश्वास से चलित होकर नकली कलियुगी भगवानों या देवों, वंचक-गुरुओं और प्रलोभनकारी धर्मों के चक्कर में कदापि नहीं फँसता। वह इस संसार में प्रत्येक कदम फूंक-फूंककर चलता है। वह अन्धविश्वासों या अन्धविश्वासों में फंसाने वालों के चंगुल में नहीं फँसता । वह इन स्वार्थ-पोषक दलालों से कोसों दूर रहता है । उसकी आध्यात्मिक उड़ान भी स्वार्थ, मोह या द्वष से या ईर्ष्याप्रतिस्पर्धा आदि से प्रेरित नहीं होती। इसलिए वह आध्यात्मिक उड़ान भरते समय भौतिक आकर्षणों से, यहाँ तक कि लब्धियों या सिद्धियों के चक्कर से भी दूर रहता है। एक राजा था। राजसी वैभव से सम्पन्न होते हुए भी उसके व्यक्तित्व में एक गुण था-निर्मोहत्व के सिद्धान्त पर दृढ़ता। उसके इस गुण की चर्चा मनुष्यलोक में ही नहीं, देवलोक में भी फैल गयी थी। एक बार एक देव को उस राजा के निर्मोह गुण पर ईर्ष्या हुई, उसने परीक्षा लेने की ठानी। राजा का लड़का एक दिन सैर करने निकला। देवमाया से उसने अदृश्य कर दिया और योगी का वेष बनाकर अपनी कुटिया के पीछे एक लाश डाल दी, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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