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________________ सज्जनों का सिद्धान्तनिष्ठ जीवन १५७ कसौटी हुई। वह अपने नगर के कुछ व्यापारियों के साथ एक बड़ी नौका में बैठा और वह ज्यों ही समुद्र में कुछ दूर चली कि एक देवता आ कर अर्हन्नक-श्रावक से कहने लगा-"तुम्हारे धर्म-कर्म में क्या रखा है, यह तो मिथ्या है, ढोंग है । क्या धर्म तुम्हारे खाने-पीने में काम आता है ? क्या धर्म तुम्हें सुख के साधन, रुपया-पैसा दे सकता है ? क्या धर्म तुम्हारी विपत्ति में, शत्र से, विरोधी से, या और किसी संकट से तुम्हारी रक्षा कर सकता है ? कदापि नहीं। तब यह धर्म झूठा है, तुमने इसे क्यों पकड़ रखा है । छोड़ दो इसे, कह दो कि धर्म झूठा है ! “अगर तुम इतनासा कह दोगे तो लो मैं तुम्हें बिना ही व्यापार किये यहीं मालामाल कर दूंगा।" अर्हन्नक देवता की इन चिकनी-चुपड़ी बातों के बहकावे में और अनायास ही धन प्राप्ति के चक्कर में बिलकुल न आया। वह कहने लगा- "तुम्हारे कहने से मैं धर्म को कैसे झूठा कह दूँ ! आज से ही नहीं, धर्म तो मेरा जन्म-जन्म का साथी है । शरीर, प्राण, इन्द्रियाँ, मन आदि सब नाशवान हैं, वे यहीं धरे रह जाएँगे, मगर धर्म शाश्वत है, वह मेरे साथ ही जाएगा और रहेगा। मुझे जितने जो कुछ भी जीवन यापन के साधन मिले हैं, वे सब धर्म के प्रभाव से ही मिले हैं। इसलिए तुम लाख, दो लाख क्या, सारी दुनिया की सम्पत्ति मुझे दो तब भी मैं अपने धर्म को न तो झूठा कहूँगा और न ही छोडूंगा।" देवता ने देखा कि प्रलोभन से तो यह काबू में नहीं आता, अतः इसे भय से काबू में लेना चाहिए। देवता ने कहा-"अर्हन्नक ! अगर तुम अपने धर्म को असत्य न कहोगे और न छोड़ोगे तो फिर उसका नतीजा भी तुम्हें भुगतना पड़ेगा। फिर देखता हूँ, कौन-सा धर्म तुम्हारी रक्षा करने आता है ? मैं तुम्हारी जहाज को उलटा दूंगा। तुम और तुम्हारे साथी तथा तुम्हारा सारा माल समुद्र में डूब कर समाप्त हो जाएंगे। फिर यह धर्म तुम्हारे किस काम आएगा। इसलिए इस आफत से बच कर जिन्दा रहना हो, और धन कमा कर सुख से जिन्दगी बितानी हो तो इस धर्म को मिथ्या कह कर छोड़ दो।" परन्तु अर्हन्नक अपने धर्म पर दृढ़ था । वह धर्म को छोड़ कर धन-माल और प्राणों को मोहवश हर्गिज बचाना नहीं चाहता था। अतः देव से कहा- "तुम चाहे मेरे शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दो, चाहे मेरा सर्वस्व धन ले लो या माल डुबा दो, परन्तु मैं किसी भी हालत में धर्म को न तो मिथ्या कह सकता हूँ, न उसका त्याग कर सकता हूँ। मैं अपने सिद्धान्त पर अटल हूँ। देवता ने देखा कि इसके रोम-रोम में धर्म रमा हुआ है, इसे विचलित करना टेढ़ीखीर है । फिर भी एक बार तो उस देव ने विकरालरूप बना कर समुद्र में तूफान पैदा करके जहाज को उथल देने की चेष्टा की, तब भी अर्हन्नक अपने सिद्धान्त पर अड़ा रहा। अतः उसने अर्हन्नक के साथियों को भड़काया, साथी थोड़ा-सा बहके भी, किन्तु अर्हन्नक की सिद्धान्तनिष्ठा की बातों से वे भी धर्म पर दृढ़ हो गए, उनका जो थोड़ासा प्राण धन और माल पर मोह था, वह भी उड़ गया। धर्म-सिद्धान्त के प्रति पूर्ण दृढ़ता देख कर देवता अर्हन्नक पर अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उसे प्रणाम किया, क्षमा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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