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आनन्द प्रवचन : भाग ८
इसका तात्पर्य यह है कि महानुभावों द्वारा सदाशय से की हुई बहस और अनुभूति के बाद जो सत्य निश्चित कर दिया जाता है, जो अनेक अनुभवियों की कसौटी पर खरा उतर जाता है, जिसमें फिर रद्दोबदल की कोई गुंजाइश नहीं रहती, वह सिद्धान्त कहलाता है । सिद्धान्त प्राय: सर्वानुमति से प्रमाणित होता है । सिद्धान्त प्रायः अनुभवों के आधार पर बनते हैं। सूत्रकृतांगसूत्र में सिद्धान्त की सर्वमान्यता अनिवार्य बताते हुए कहा है
'जं मयं सव्वसाहूणं, तं मयं सल्लकत्तणं' जो सिद्धान्त सभी धर्मनिष्ठ साधकों द्वारा मान्य है, वही माया, निदान और मिथ्यादर्शनरूप शल्य को छेदन करने वाला (शास्त्र) है।'
सिद्धान्त की सच्चाई तभी है, जब वह अनेक वीतरागपुरुषों द्वारा मान्य हो, मुक्ति और सिद्धि का मार्ग हो, निर्वाण और आत्म-निर्माण की ओर ले जाने वाला हो । जैन शास्त्रों में इसके लिए ये शब्द मिलते हैं
"इणमेव निग्गंथं पावयणं सच्चं, अणुत्तरं, केवलियं, पडि-पुण्णं नेयाउयं, संसुद्धं सल्लकत्तणं, सिद्धिमगं, मुत्तिमग्गं, निज्जाणमग्गं, निव्वाणमग्गं, अवितहमविसंदिद्ध, सव्वदुक्खपहाणमग्गं, । इत्थं ठियाजीवा, सिझंति, बुज्झंति, मुच्चंति, परिणिव्वायंति, सव्वदुक्खाणमंतं करेंति ।"
-यही निर्ग्रन्थों (बाह्य-आभ्यन्तर ग्रन्थों से रहित निःस्पृह पुरुषों) का प्रवचन (सिद्धान्त), सत्य है, इससे बढ़कर श्रेष्ठ कोई नहीं है, वीतराग केवलज्ञानियों द्वारा प्ररूपित है, प्रतिपूर्ण है, न्याय से युक्त है, सम्यक्प्रकार से शुद्ध है, मायादिशल्यों को काटने वाला है, सिद्धि का मार्ग है, मुक्ति का मार्ग निर्याण (निस्तार = कल्याण) का मार्ग है निर्वाण का मार्ग है, अवितथ है, असदिग्ध है, समस्त दुःखों को नाश करने का मार्ग है। इस निर्ग्रन्थ प्रवचन रूप सिद्धान्त में स्थिर रहकर जीव सिद्ध, बुद्ध मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं, अन्त में समस्त दुःखों का अन्त करते हैं।
सिद्धान्त वह नहीं है, जिसे दो, चार या सैकड़ों मनचले, स्वार्थी राहगीरों ने मिलकर अपने स्वार्थ से प्रेरित होकर अपनी सुखसुविधाओं के अनुरूप बना लिया। सिद्धान्त तो पहले बताए हुए तत्त्वों पर आधारित होता है। वह शाश्वत सत्य होता है। जितने भी सिद्धान्त बनते हैं, वे सब वीत-राग सर्वज्ञ पुरुषों द्वारा अनुभवों की आंच में तपाये जाने के बाद ही, सिद्धान्त रूप में घोषित होते हैं और इस प्रकार वास्तविकता के द्वारा ही कोई सिद्धान्त कार्यरूप में परिणत होता है, तभी वह उपयुक्त उद्देश्यों को प्राप्त करा सकता है । अन्यथा जो बात-बात में बनते हैं, बिगड़ते हैं, मिटते हैं, या मिटाये जाते हैं, अपने अमुक स्वार्थ के सिद्ध न होने पर छोड़ दिये जाते हैं, वे सिद्धान्त नहीं हैं, वे तो भावुकतावश सामान्य बुद्धि वालों द्वारा निर्णय किये हुए कुछ विचार होते हैं। जेकोबी नामक विद्वान ने कहा है
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