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________________ सज्जन होते समय पारखी १४७ हैं । 'अभी नहीं, फिर कभी' ने हजारों मनुष्यों को सुअवसरों से लाभ उठाने से वंचित कर दिया, उन्नतिपथ पर आरूढ़ होने से रोक दिया, आत्मविकास में बाधाएँ डालीं, द्रव्योपार्जन में विघ्न उपस्थित कर दिये, आत्मोन्नति की सीढ़ी पर चढ़ने से रोक कर, उनके भूतकालको पश्चात्तापमय बना दिया। आगे पर टालने की आदत सबसे बड़ा मानवीय दोष है, इससे मनुष्य की साख उठ जाती है, उत्साह टूट जाता है, उन्नति में बाधा पहुँचती है । समय का वास्तविक रूप तो वर्तमान अभी ही है । जीवन के लिए यही सर्वोत्तम अवसर है । भूत और भविष्य तो निरे स्वप्न हैं । भूतकाल के विगत अवसरों के नाम पर पश्चात्ताप करना और भविष्य की काल्पनिक आशाओं के पंखों पर उड़ना प्रायः मूर्खता है । उपस्थित वर्तमान को भुलाकर पीछे और आगे की बातें सोचना वास्तव में जीवन संग्राम में उपस्थित अवसर से अपने को वंचित करना है, अपने घुटने टेकना है । पहले अगर हमें ऐसा अवसर मिलता तो हम आज इस स्थिति में न होते, हमारी बहुत उन्नति हो गई होती; ऐसा सोचना भी प्राप्त वर्तमान - प्राप्त अवसर से अपने को दूर रखना तथा अपनी वर्तमान शक्ति को खोना है । कार्य को कल पर या आगे पर न टालें इसी प्रकार कोई भी कार्य - सत्कार्य या धर्मकार्य कल पर न टालें । आज तो नहीं, कल से मैं सुबह जल्दी उठूंगा, अमुक ध्यान या साधना करूँगा, फिजूल खर्च कम कर दूंगा, या अमुक बुरी आदत छोड़ दूंगा, कहकर आप वर्तमान को भूत में परिवर्तित कर देते हैं तथा भविष्य को भी वर्तमान में बदल कर प्राप्त अवस्था से लाभ नहीं उठा पाते । कल पर आज के या अभी के कर्तव्य को टाल देना, यह प्रगट करता है कि आपको कर्तव्य पालन की उत्कट अभिलाषा नहीं है । इसीलिए कहा है " काल करे सो आज कर, आज करे सो अब । पल में परलै होयगी, बहुरि करेगो कब ?” ऐसा विचार जब कभी आए तो उसे फटकार कर कह दो - "आज नकद कल उधार ।" ऐसा कल 'कल' ही बना रहता है, वह कभी आने का नहीं । कवि कहता है " 'कल' का, ओ कहने वाले कल का बोल अन्त कब होगा कल का ? सोचता है तू बड़ी दूर की, श्वास का भरोसा नहीं पल का ॥ करना जो आज कर ले कल आए न आए। कल के भरोसे बैठा बैठा ही रह न जाए ॥ कल० ॥ न पूरे । अधूरें ॥ Jain Education International कल पर जो छोड़े उसके होते काम कहते हैं कि रावण के कई काम हैं १ तर्ज - रुक जा ओ जाने ..... For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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