SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सज्जन होते समय पारखी १४१ जाती हैं । कितना अनुभव युक्त सुन्दर सत्य तथ्य आपके सामने प्रस्तुत किया गया है, परन्तु समय होते हुए भी मनुष्य बहाने बनाकर अपने दिन अधर्म कार्यों में व्यतीत करते रहते हैं । बुढ़ापे के भरोसे बहुत-सा समय खो देते हैं बहुत से लोग इस मिथ्याविचार से जवानी या प्रौढ़ अवस्था तक समय को जैसे-तैसे लापरवाही से बिता कर नष्ट करते रहते हैं, कि बुढ़ापे में जा कर समय का ठीक उपयोग — धर्माराधना में उपयोग कर लेंगे, परन्तु मनुष्य की जिन्दगी का क्या भरोसा है ! बुढ़ापा आएगा या नहीं ? यह किसे पता है ! फिर बुढ़ापा आ भी गया तो समय के सदुपयोग का अभ्यास न होने से वे कैसे समय को धर्माराधना में बिता सकेंगे ? मनुष्य को बचपन में इतनी बुद्धि और समझ नहीं होती कि समय का मूल्य समझ लें । वह खेल-कूद, मित्रों व भाई-बहनों के झुण्ड के साथ मटरगश्ती करता हुआ यों ही इस सम्पदा को लुटाता चलता है । एक दिन यौवन आ खड़ा होता है । यौवन बहुमूल्य वरदान के रूप में मिलता है । इस अवस्था में समय का ठीक उपयोग करने की क्षमता प्राप्त होती है । जब तक कोई बीमारी आकर न घेर ले इन्द्रियाँ क्षीण न हो जाएँ शरीर स्वस्थ हो, तन-मन से बुढ़ापा न आ जाय, तब तक मनुष्य समय को धर्माचरण में बिता कर सफल व सार्थक कर सकता है । किन्तु यौवन के मद में पागल मनुष्य समय का ठीक उपयोग नहीं करता । समय को निर्दयता से खर्च करने पर जब बुढ़ापा कमजोर टांगों एवं धुंधली आँखों से उसका स्वागत करता है, तब वह चौंक पड़ता है, निराश हो जाता है । तब वह निराश होकर कह बैठता है - जवानी में कुछ नहीं कर पाया तो अब बुढ़ापे में भला क्या सत्कार्य कर सकूंगा ? परन्तु उसे उस सफल व्यापारी की तरह घाटे से निराश नहीं होकर धैर्य और बुद्धिमता से अपने उखड़े पांव पुनः जमा लेना है। दो तिहाई जीवन बीत गया तो क्या हुआ, एक तिहाई तो बचा हुआ है, उसमें भी बहुत कुछ किया जा सकता है। एक निःस्पृह सन्त एक बार बीमार पड़ गए तो एक सेठ ने उनकी बहुत सेवा A । वे स्वस्थ हो गए। सन्त ने सोचा - " सेठ को अपने जीवन के कीमती समय को सार्थक करने के लिए कुछ उपदेश देना चाहिए।" एक दिन दोपहर को सन्त उक्त सेठ के यहाँ पहुँचे । सेठ ने सन्त को आए देख समझा - " धर्मोपदेश देने आए होंगे, और तो इनके पास क्या है ?" सेठ बोला - "महाराज - श्री ! आप पधारे हैं, बड़ी कृपा की, किन्तु अभी तो मुझे फुरसत नहीं है। काम में उलझा हुआ हूँ । आप एक महीने बाद पधारिए ।" सन्त एक महीने बाद पधारे तो फिर उद्देश्य से बोला - "गुरुदेव ! अभी एक सप्ताह का काम और है, बाद पधारिए ।" सन्त धुन के पक्के थे । वे एक सप्ताह बाद करने पधारे तो सिर खुजलाते हुए उसने कहा - "गुरुदेव ! आप तो अत्यन्त कष्ट सेठ उन्हें टरकाने के आप एक सप्ताह फिर सेठ को जागृत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy