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________________ १४० आनन्द प्रवचन : भाग ८ का समय शौच, भोजन, स्नानादि के लिए रख लें । एक घन्टे सायंकाल विविध कार्यों के लिए रख लें । इस प्रकार लगभग ८ घन्टे नित्य बचते हैं । इनमें से दो घन्टे मनोरंजन तथा मार्ग में आने जाने का समय निकाल दें तो भी ६ घन्टे दैनिक एक व्यक्ति के पास बचते हैं। रविवार या अन्य दिनों की छुट्टियाँ इससे अलग हैं | अपने आवश्यक कार्यों के लिए उदारता से समय देने पर भी मनुष्य के पास प्रतिदिन ६ घन्टे बचते हैं। अगर मनुष्य इन दैनिक ६ घन्टों का कोई अच्छा उपयोग नहीं करता है। तो वर्ष में वह २१६० घन्टे यानी ३ महीने ६ घन्टे व्यर्थ बरबाद कर देता है । जीवन में धर्माचरण न करने या सत्कार्य न करने वाला मनुष्य कितना समय बरबाद कर देता है, इसका आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं । इसका अर्थ है, समय का ठीक उपयोग न करनेवाले अपनी जिन्दगी का चौथाई समय व्यर्थ कामों में खर्च कर देते हैं जो जीवन की अमूल्य निधि है । अतः यह शिकायत व्यर्थ है कि मेरे पास समय नहीं हैं । बम्बई में एक प्रसिद्ध साधु का चातुर्मास था । एक धनिक समाज में अग्रगण्य माने जाते थे, उन्हें जब सूचित किया गया कि अमुक सन्त पधारे हैं, आप भी धर्मोपदेश श्रवण आदि का लाभ लें ।" इस पर उन्होंने धन के नशे में आकर तपाक से कह दिया - " No Time" मेरे पास समय नहीं है ।' किन्तु दूसरी बार जब वे ही सन्त बम्बई पधारे तो वे ही समय नहीं हैं कहने वाले धनिक अग्रगण्य अब सबसे आगे की लाइन में प्रवचन श्रवण करने सामायिक लेकर बैठते थे । अब समय कहाँ से मिलने लगा ? अब उनके धन की गर्मी निकल चुकी थी । धन का नशा भी उतर चुका था। अब उनकी स्थिति सामान्य हो चुकी थी । इसलिए धर्म-कर्म में भी रुचि होने लगी । वास्तव में, जो मनुष्य समय प्राप्त होने पर उसका ठीक से उपयोग नहीं करता, या व्यर्थ नष्ट कर देता है, वह समय की आशातना करता है। शास्त्र में साधक के लिए 'कालस्स आसायणाए' यानी काल (समय) की आशातना का प्रतिक्रमण आवश्यक बताया है । क्या आप कभी सोचते हैं कि हमने आज का दिन कैसे बिताया है ? भगवान महावीर ने समस्त मनुष्यों को समय के सदुपयोग-दुरुपयोग का परिणाम बताते हुए कहा है जा-जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तइ । अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जन्ति राईओ ॥ जा-जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तइ । धम्मं च कुणमाणस्स सफला जन्ति राईओ ॥" जो-जो रात्रि व्यतीत हो जाती है, वह लौट कर नहीं आती, जो लोग उन दिनों में अधर्म करते हैं उनकी वे रात्रियाँ निष्फल गई समझनी चाहिए। इसके विपरीत जो व्यक्ति उन रात्रियों में धर्माचरण करता है उसकी वे रात्रियाँ सफल हो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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