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________________ १३८ आनन्द प्रवचन : भाग ८ धन के अभाव में दुःखी है तो कोई विद्या-ज्ञान के अभाव में चिन्तित है, परन्तु समझ में नहीं आता कि जब इनके पास समय की बहुत बड़ी शक्ति और उपलब्धि थी, तब ये कहाँ गए थे, क्या कर रहे थे ? इतने लम्बे समय में तो ये सब कुछ उपार्जित कर सकते थे ! विश्व की सम्पदा या विश्व का ज्ञान भण्डार तो समयनिधि के स्वामी मनुष्य की बाट जोह रहा है, लेकिन मूढ़ मानव अपने पास समयनिधि होते हुए भी न पाने की शिकायत करता है ! समय का इतना भण्डार उसके पास होते हुए भी वह धन, ज्ञान, लोकहित आदि की उपलब्धि नहीं कर सकता, यही सबसे बड़ा आश्चर्य है। ___ फ्रैंकलिन ने ठीक ही कहा है-समय वह जड़ी है, जो तमाम रोगों का इलाज कर देती हैं " समय व्यर्थ नष्ट करने वालों की जितनी भी शिकायतें हैं या रोग हैं, उन सबको समय, एकमात्र समय की जड़ी का ठीक तरह से उपयोग, मिटा सकता है। यदि वे अपने समय को उपयोगी कार्यों में लगाते हैं, और व्यर्थ नष्ट नहीं होने देते तो समय अपने आप अपनी शक्तियाँ, उपलब्धियाँ और निधियाँ उन मानवों को अर्पित कर देता है। परन्तु जो लोग समय के इस संकेत को न समझकर उसकी उपेक्षा करके व्यर्थ समय खो देते हैं, अपने प्राप्त समय को उपयोगी कार्य में नहीं लगाते उनका वह क्षण बीतकर भूत में परिवर्तित हो जाता है, बल्कि उनका सारा वर्तमान भूत में बदलता जाता है; फिर भी उन मोहावृत लोगों को मालूम नहीं पड़ता कि हमारे हाथ से कितनी बहुमूल्य सम्पदा खो गई। पास से पैसा खर्च होता हैं या गिर जाता है तो मालूम भी होता है, पश्चाताप भी महसूस होता है, लेकिन समय-सम्पदा जब ऐसे लोगों के जीवनरूपी पर्स से गिर जाती है, या खर्च हो जाती है तो पता भी नहीं चलता, न कोई रंज-गम होता है । परन्तु याद रखिये, वर्तमान में खोया हुआ समय भूत में बदलकर अवश्य ही अनेक भयावह दुष्परिणाम लाने वाला सिद्ध होता है। मरते समय तक जो अपने समय को पाप या अधर्म के कार्यों में या आलस्य, निद्रा, दुर्व्यसन, कलह, गपशप आदि व्यर्थ के कामों में खर्च कर देते हैं, उन्हें मृत्यु की घड़ियों में पश्चाताप होता है कि वे अपने जीवन में कोई भी सत्कार्य, धर्माचरण या दान आदि नहीं कर सके। __ एक धनाढ्य व्यक्ति थे। उनके गाँव में एक सार्वजनिक संस्था का निर्माण हो रहा था । वे प्रतिदिन उसके पास गुजरते हुए उस संस्था के भवन निर्माण के काम को देखा करते थे। उनके मन में बार-बार विचार उठता था कि मैं इस संस्था को दान दूं, किन्तु घर जाते ही उनका यह विचार छूमन्तर हो जाता। वे यह हिसाब लगाने लगते कि इस संस्था को दान से मेरी पूंजी में इतनी कमी हो जाएगी, फिर मेरे लिए इस दान से मेरी पूंजी में इतनी कमी हो जायेगी, फिर मेरे लिए इस संस्था को दान देना आवश्यक थोड़े ही है। सरकारी टेक्स तो देना पड़ता है, इस संस्था को देना नहीं पड़ रहा है।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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