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________________ १३४ आनन्द प्रवचन : भाग ८ गति में मति में कृति में स्मृति में, धृति धर बोहिज ध्यावे रे । जन में, वन में रजनी दिन में, तत्पर तान लगावे रे ॥१॥ नहीं जगत् ने देखे, लेखै खुदरो समय लगाव रे। तज पररी चिन्ता, घररा ही गीत मस्त बण गावे रे ॥२॥ वास्तव में समय अमूल्य है । जिसने समय को बिना सोचे-समझे खर्च कर दिया, वह जीवन की पूँजी भी यों ही गंवा देता है । यह पूंजी अपने-आप खर्च हो जाती है। आप कृपण बनकर समय को सोनेचाँदी के सिक्कों की तरह जोड़ कर रख नहीं सकते । यह गतिमान है। आप अपनी अन्य सम्पदाओं की तरह उस पर अधिकार नहीं जमा सकते । आपका उस पर स्वामित्व यहीं तक है कि आप उसका स्वयं सदुपयोग कर लें। जो सज्जन होते हैं वे ही अपनी इस प्राकृतिक धरोहर का समुचित उपयोग करते हैं। वे नियमित रूप से समय पर सब काम करते हैं। इस लिए उनका काम भी व्यवस्थित ढंग से अच्छी तरह समाप्त हो जाता है, इससे उन्हें उत्साह भी मिलता है, प्रसन्नता भी होती है। इसलिए विचारशील व्यक्ति सदैव समय का पालन करते हैं। समय निर्धारित कर लेने के बाद भी नियत समय पर कार्य न करने और बाद में उस काम को हाथ में लेने से वह काम तो कदाचित् हो जाता है पर उसमें कोई उत्साह नहीं रहता । काम पूरा न होने की हालत में असन्तोष और अप्रसन्नता भी होती है। जो लोग समय के पाबन्द नहीं होते उनके आधे काम अधूरे रहते हैं और हमेशा काम की धमाचौकड़ी मची रहती है। पहली बार नियत कर लेने के बाद उसी समय वह कार्य सम्पन्न करने से कार्य में जो उत्साह होता है, उससे काम बड़ी कुशलता के साथ सम्पन्न होता है। उसका शरीर भी किसी काम करने के ठीक समय पर उसी काम के योग्य यंत्र-सा बन जाता है । और अगर उस समय में दूसरा काम लिया जाता है तो वह काम लकड़ी काटने वाली मशीन से कपड़े काटने जैसा हो जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि न उस काम को दक्षतापूर्वक किया जा सकता है और न ही चालू काम में भलीभाँति मन लगता है । फलस्वरूप समय तो नष्ट होता ही है, अपनी शक्तियों का भी क्षय होने लगता है । इसलिए विचारवान् व्यक्ति जीवन के एक-एकक्षण को उपयोगी समझ कर सदैव समयबद्ध होकर काम करते हैं। समय का पालन करना वे चरित्र-निर्माण का एक महत्वपूर्ण अंग समझते हैं। अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति जार्जवाशिंगटन समय के बड़े पाबन्द थे। एकबार उन्होंने कुछ मेहमानों को तीन बजे भोजन के लिए आमंत्रित किया। साढ़े तीन बजे उन्हें सैनिक कमाण्डरों की आवश्यक मीटिंग में भाग लेना था । उनका नौकर जानता था कि साहब समय की नियमितता को दृढ़ता से निभाते हैं। अतः ठीक ३ बजे भोजन की मेज तैयार करके उसने सूचना दी-“साहब ! तीन बज गए हैं । मेहमान अभी तक नहीं आए।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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