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________________ सज्जन होते समय पारखी १३३ समयानुसारिता के बिना नियमित, व्यवस्थित एवं संयमित रूप से प्राप्त नहीं हो सकती । महात्मा गाँधीजी समय की कीमत एवं महत्ता जानते थे । वे अपने साथ समय का सदुपयोग करने हेतु सदा एक जेबघड़ी रखा करते थे । जेबघड़ी रखने का उद्देश्य यही नहीं था कि उन्हें समय का ज्ञान होता रहे, बल्कि यह भी था कि वे स्वयं समयबद्ध अपना प्रत्येक कार्य कर सकें, तथा जो लोग उनसे मिलने आएँ वे भी निर्धारित समय से एक मिनट भी अधिक न ले सकें । सुप्रसिद्ध अमेरीकन पत्रकार लुई फिशर जब गाँधीजी से मिलने आए, उस समय वार्तालाप का निर्धारित समय बीत जाने पर गाँधीजी ने उन्हें अपनी घड़ी दिखाई कि बातचीत का समय समाप्त हो चुका है । फिशर ने अपनी पुस्तक में एक पत्रकार की हैसियत से लिखा है कि 'सेवा ग्राम ही एक ऐसी जगह थी, जहाँ उन्हें घड़ी दिखलाकर यह संकेत कर दिया गया था कि मुलाकात का समय बीत चुका है ।' समय को एक पाश्चात्य विचारक ने सोने की तितली बताया है 'Time is chrysalis of eternity' अर्थात् — समय अनन्तकाल की एक स्वर्णिम तितली है । समय को खोना अमूल्य जीवन को खोना है, यह बात सज्जन पुरुष भली-भाँति जानते हैं । इसलिए वे समय की कभी उपेक्षा नहीं करते । भगवान महावीर ने पावापुरी के अपने अन्तिम प्रवचन में समय का महत्व और मूल्य बताने के लिए ही गणधर गौतम को सम्बोधित करते हुए एक ही वाक्य को कई बार दोहराया है - समयं गोयम ! मा पमायए । हे गौतम ! क्षणमात्र का भी प्रमाद मत कर । भगवान महावीर का यह उपदेश संसार के समस्त साधकों के लिए है, जगत् के समस्त सज्जनों के लिए है कि वे जीवन के एक क्षण को भी प्रमाद में न खोएँ । प्रमाद जीवन का मरण है । द्रव्यमरण तो होता रहता है, मगर प्रमाद आदि के वश में होकर मिथ्यात्व अविरति कषाय, अशुभवृत्ति प्रवृत्तियों में समय को खोना भावमरण है । द्रव्यमरण की अपेक्षा भावमरण अधिक भयंकर है । श्रीमद् राजचन्द्रजी ने कहा है " क्षण-क्षण भयंकर भावमरणे का अहो राची रहो ?" समय पालन : जागृत जीवन की कुन्जी ऐसा साधक समय का एक कण भर समय भी व्यर्थ खोता नहीं । एक कवि मारवाड़ी भाषा में कहता है - धन उण साधक ने, जो पलपल सफल बणावे रे | जो पग-पग जागृति लावे रे |धन० ॥ सांस-सांस में सावधान बण, जोगी अलख जगावे रे ॥ध्रुव ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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