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________________ १२४ आनन्द प्रवचन : भाग ८ भगवान ऋषभदेव के पुत्र द्रविड़ के दो पुत्र थे-द्राविड़ और वारिखिल्ल । द्रविड़ ने द्राविड़ को मिथिला का तथा वारिखिल्ल को एक लाख गाँवों का राज्य सौंप कर भगवान ऋषभदेव के पास मुनिदीक्षा अंगीकार कर ली। ___ इधर वारिखिल्ल के राज्य का उत्कर्ष देखकर द्राविड़ के मन में ईर्ष्या जागी। वारिखिल्ल को जब यह बात मालूम हुई तो वह भी द्राविड़ का राज्य हथियाने की चेष्टा करने लगा। दोनों में परस्पर वैर-विरोध बढ़ता गया। कुछ दुष्टों के बहकावे में आकर द्राविड़ ने अपने नगर में वारिखिल्ल का प्रवेश निषिद्ध कर दिया। इससे वारिखिल्ल के मन में भी कषाय जगा और वह युद्ध के लिए उद्यत हो गया। सेना तैयार की। द्राविड़ को मालूम पड़ा तो उसने युद्ध के लिए सेना सुसज्जित कर ली। रणभेरी बजा दी। द्राविड़ और वारिखिल्ल दोनों की सेनाएँ युद्ध के मैदान में आ डटीं । दोनों में भयंकर युद्ध हुआ। दस करोड़ मनुष्यों का संहार हो गया। इसी बीच वर्षाकाल आ जाने से युद्ध स्थगित हो गया। ___ एक दिन द्राविड़ राजा सपरिवार वनश्री का निरीक्षण करने निकला। साथ में विमलबुद्धि मंत्री था। उसकी प्रेरणा से सभी सुवल्गु नामक तापस के आश्रम में पहुँचे। तापस ने उपदेश दिया कि संसार-समुद्र काम-क्रोध-मद-लोभ आदि जलजीवों से भरा है । उनके कारण हिंसादि पापों में लिपटा जीव नरकादि दुर्गतियों में महादुःख भोगता है। राज्य लोभ वश भाई के साथ युद्ध करना भी नरकादि दुःखरूप अर्थ का कारण है । युगादिदेव के पौत्र होकर क्यों आपस में लड़-भिड़कर अपनी और जनता की शक्ति का क्षय करते हो ? क्या राज्य तुम्हारे साथ जाएगा ? तापससुवल्गु के वचन सुनकर द्राविड़ ने अज्ञाननिद्रा से जगाने और विवेक दृष्टि खोलने के लिए बहुत आभार माना। द्राविड़ अपने छोटे भाई वारिखिल्ल से क्षमा याचना करने वहाँ से पैदल चलकर आ रहा है वारिखिल्ल को यह पता लगते ही वह भी उसके सम्मुख पहुँचा और अपनी ओर से क्षमा माँगी । दोनों ने एक-दूसरे से कहा कि हमें राज्य की आवश्यकता नहीं है । हम तो राज्य आदि सब को छोड़कर आत्म-कल्याण करने हेतु वन में ही रहेंगे।" दोनों ने अपने-अपने पुत्र को राज्य सौंपा और अनेक लोगों सहित दीक्षा धारण की। इस प्रकार ईर्ष्या की आग ने कितना वैर-विरोध पैदा कर दिया था, जो क्षमा के पानी से ही बुझ सकी। इसलिए गौतम ऋषि ने कहा-'ते पंडिया जे विरया विरोहे।" बन्धओ, मैं काफी विस्तार के साथ पण्डित जीवन के सम्बन्ध में कह गया हूँ। आप इस पर मनन-चिन्तन करें और तमाम विरोधों और उनके कारणो से दूर रहकर अपना जीवन शुद्ध पण्डितमय बनाएँ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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