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________________ पण्डित रहते विरोध से दूर १२३ पर चलते हुए जो पिछड गए, पतित हो गए, ठोकर खा गए, हैं, उनके प्रति घृणा, तिरस्कार या उपेक्षा का भाव रखना या उनकी सेवा-सुश्रूषा से पराङ मुख होना पाण्डित्य का लक्षण नहीं है । ऐसे समय में जो यह कह देते हैं कि पापों की अधिकता के कारण उन्हें दण्ड भोगना पड़ा है, जो जैसा करता है, उसे वैसा भोगना पड़ता है, इसमें हम क्या करें ? यों तो संसार में प्रतिदिन अनेक जीव मरते हैं, किस-किसको सहायता करें ? इस प्रकार जो व्यक्ति विपद्ग्रस्त को सहायता देने का स्वयं विरोध करता है, उदासीन रहता है, यह भयंकर मानवता विरोधी दुर्भाव है, हृदयहीनता है। पापी को दण्ड मिला, विपत्ति के रूप में किन्तु आपने यदि विपत्तिग्रस्त की सहायता का विरोध किया तो वह भी एक प्रकार का पाप ही हुआ। भगवान् जब पतितोद्धारक हैं, तो हमें पतितों और पीड़ितों से घृणा करने का क्या अधिकार है क्या औचित्य है ? किसी को सताना, तंग करना और कटु वचन बोलना भी विरोध का कारण है । जो वास्तविक पण्डित होता है, वह दूसरों को सताना तो दूर रहा, जो दूसरों द्वारा सताए हुए या प्रताड़ित है, उन्हें देखकर करुणा भाव लाता है, उन्हें सब तरह से सहयोग देकर अपना बना लेता है। दूसरों की निन्दा या बदनामी करना अथवा चुगली खाना भी विरोध का कारण है, पण्डित को इनसे बचना आवश्यक है। इसी प्रकार दोषदृष्टि भी विरोध का कारण है। जब किसी पण्डित की दूसरों के छिद्र, दोष, और ऐब ढूंढ़ने और देखने की वृत्ति बन जाती है, वस्तुओं के काले पहलू को देखने की आदत हो जाती है, तब उसे दोष और विकृति ढूंढे बिना चैन नहीं पड़ता। उन्हें संसार में कुरूपता और नुक्ताचीनी के सिवाय और कुछ नजर ही नहीं आता। परिणामस्वरूप उन्हें प्राप्त होते हैं-लांछन, कलंक, लोक-निन्दा और तिरस्कार । ऐसे लोग प्रत्येक स्थान, व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति में दोषदर्शन करके खिन्न, अशान्त उद्विग्न और असन्तुष्ट दिखाई देते हैं। उन्हें समाज, शरीर, संसार, मित्रों, वस्तुओं परिस्थितियों, सबसे शिकायत रहती है। ऐसे लोग चाहे कितने ही शिक्षित और सम्पन्न हों, सब कुछ सुखसाधन के हों, फिर भी वे आनन्द, प्रसन्नता और सुखशान्ति नहीं पाते । दोषदृष्टि से व्यक्ति दूसरों की निन्दा, आलोचना और बदनामी करके अपने जीवन में स्नेह, आत्मीयता, सौजन्यता, प्रेमपूर्ण व्यवहार और सहिष्णुता के गुणों का विरोधी बन जाता है। इसी प्रकार अपने-पराये या पक्षपात का भाव भी विरोध पैदा करते हैं। ईर्ष्या तो पण्डितजीवन में भयंकर विरोध पैदा करती हैं । जहाँ परिवार, समाज और राष्ट्र में ईर्ष्या की वृत्ति किसी में आ जाती है, वहाँ वर, विरोध, कलह, द्वेष और युद्ध के कीटाणु पनपते हैं । वह जीवन का सर्वनाश कर देती है । ईर्ष्या से भाई-भाई किस प्रकार अपना सर्वनाश कर बैठते हैं ? इसके लिए एक प्राचीन उदाहरण लीजिए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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