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आनन्द प्रवचन : भाग ८
मालवीय ने एक बार उनसे शिकायत की- "बैठक में ऐसे बहुत-से आदमी बिना पूछे चले आते हैं, जिनके पैर धूल से सने होते हैं, और कपड़े निहायत गंदे होते हैं, मुझे इनका आना बिलकुल पसन्द नहीं है। मैं इनके आने पर प्रतिबन्ध लगा दूंगा।" इस पर प० मदनमोहन मालवीय के उद्गार थे
_ "जब तक मैं इस मकान में हूँ, तब तक ये गरीब आदमी इसी प्रकार यहाँ आते रहेंगे। मुझे भारत ही नहीं, संसारभर के गरीबों से सहानुभूति है । मुझे उनसे हार्दिक प्रेम है। अपने घर आने को मैं इनकी कृपा मानता हूँ । इनको घर बैठे देखने का अवसर पाकर मैं देश के विषय में बहुत-सी बातें समझ लेता हूँ।"
एक पण्डित में कितनी सहृदयता, कितनी आत्मीयता की भावना छोटे और गरीबों के प्रति होनी चाहिए, इसका ज्वलन्त उदाहरण है।
गाली का जवाब गाली से और घूसे का जवाब चूंसे से देने में कोई बड़ा नहीं हो जाता, यह क्षुद्रता है। यों तो पशु भी आपस में लड़कर द्वन्द्वयुद्ध कर लेते हैं । अतः पण्डित पद बहुत महान् है, उसकी महत्ता जैसे को तैसा बनने में नहीं है, अपितु, क्षमा और सहनशीलता में है। उदारता और दूरदर्शिता का नाम ही बड़प्पन है । जो जितना उदार होता है, वह उतना ही बड़ा माना जाता है । बड़े आदमी ऊँची बात सोचते हैं, ऊँचा काम करते हैं और ऊँची सूझबूझ सा परिचय देते हैं । ओछे लोगों की क्षुद्र हरकतों से वे उद्विग्न या क्षुब्ध नहीं होते । उनकी गलती को भी प्रेम से सुधारने का प्रयत्न करते हैं । वे अपना मानसिक सन्तुलन नहीं बिगाड़ते। जो अपनी सद्भावना से दूसरों का हृदय जीत लेता है, वही पण्डित है, बड़ा है ।
__ पण्डित किसी को बदरूप या अंगहीन देखकर वह उसकी हंसी नहीं उड़ाता, न बुद्धिहीन की मजाक करता है। क्योंकि कहावत है-'कलह का मूल हँसी” हँसी करने से बड़े-बड़े विरोध-कलह पैदा हो जाते हैं । जनक राजा की राजसभा में जब बुद्धिमान् अष्टावक्र पहुँचा तो उसके आठ अंग टेढ़े-मेढ़े देखकर सभी पण्डित हंस पड़े । अष्टावक्र ने मुस्करा कर कहा- "मालूम होता है यह चमारों की सभा है, मैं तो इसे समझता था-पण्डितों की सभा।' इस पर राजा ने जब स्पष्टीकरण मांगा तो अष्टावक्र ने कहा-"चमार चमड़े को देखते हैं, आप भी मेरे चमड़े को देखकर हँसे हैं न ? अगर आप विद्वान होते तो मेरी आत्मा को देखते ।" इस प्रकार सभी पण्डितों को मुंह की खानी पड़ी। कवि वृन्द ने एक छोटे-से दोहे में इस तथ्य को खोल दिया
"काह को हंसिये नहीं, हंसी कलह को मूल ।
हांसी ही ते है भयो, कौरव कुल निरमूल ॥" इसी प्रकार अहंकारवश पीड़ितों की उपेक्षा करना भी विरोध का कारण है । अतिवृष्टि, भूकम्प, उत्पात आदि अन्य आफतों के कारण जब मनुष्य या पशु पीड़ित होते हैं, या अंग-विकलता या रोगादि के कारण त्रस्त होते हैं. या सदाचार के मार्ग
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