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आनन्द प्रवचन : भाग ८
सांसारिक स्वार्थ के झूले में ही झूल रहे हैं। क्यों बात ठीक है न ? आपकी पुत्रवधू ने अपने परिवार की स्थिति का सही चित्रण किया या नहीं ? सेठ के दिमाग की खिड़कियां खुल गईं। उसने अपनी गलती स्वीकार की और भविष्य में कोरे सांसारिक अर्थ-काम के प्रपंच में न रहकर धर्माचरण करने का संकल्प किया।
वास्तव में धर्म के बिना मानव केवल श्वांस लेने वाला चलता-फिरता प्राणी है, उसे जीवित मानव नहीं कहा जा सकता । वही जीवित है, उसका ही जीवन सच्चा जीवन है, जो अर्थ-काम का सेवन भले ही करता हो, पर धर्ममर्यादा को छोड़कर कदापि नहीं। इसी जीवन का रेखाचित्र एक कवि ने खींचा है
चलता चले वह आदमी, बढ़ता चले वह आदमी, उत्सर्ग पथ पर शूल से
लड़ता चले वह आदमी, है आदमी तो वह कि जिसका धर्म हो संग्राम है।
जीवन इसी का नाम है। कवि ने कितना मार्मिक सत्य कह दिया है। धर्माचरण क्यों करें?
बहुत-से लोग धर्म का उपहास करते हुए कहते हैं हमारे पास सभी प्रकार के साधन हैं, पैसा है, बंगला है, कार है, परिवार अच्छा है, रोजगार-धधा अच्छा चलता है, शरीर स्वस्थ है; फिर क्या जरूरत है धर्माचरण करने की या हमारे अर्थ-काम के क्षेत्र में धर्म को बीच में लाने की ? धर्म करना होगा तो हम बुढ़ापे में कर लेंगे या जिंदगी के अन्तिम दिनों में कर लेंगे, अभी तो हमें अपने कमाने-खाने से ही फुरसत नहीं है ।" परन्तु उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि ये सब सांसारिक पदार्थ या उनका उपभोग तभी उपलब्ध हो सकता है, जब पुण्य प्रबल हो, इसके अतिरिक्त इन चीजों का भी कोई ठिकाना नहीं है कि ये सदा ही बनी रहें। धन आदि पदार्थ जैसे नाशवान है, वैसे शरीर भी नाशवान है। बुढ़ापा आएगा तब कैसी मनःस्थिति, रहेगी, कौन जानता है ? बुढ़ापा भी आएगा, इसकी भी कौन-सी गारन्टी है ? अतः इन सब नाशवान वस्तुओं के चक्कर में पड़कर धर्माचरण करने में लापरवाही नहीं दिखाना चाहिए । नीतिकार ठीक ही कहते हैं
“अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः ।
मृत्युः सन्निहितौ नित्यं, कर्त्तव्यो धर्मसंग्रहः ॥" शरीर अनित्य है, वैभव भी शाश्वत नहीं है, मृत्यु प्रतिदिन निकट आती जा रही है, इसलिए मनुष्य को धर्म-संचय करते रहना चाहिए ।
___ जोधपुर निवासी सेठ बच्छराजजी सिंघी की धर्माचरण के प्रति उदासीनता
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