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________________ ८४ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग __ शंबुक के साथ भी काल ने ऐसा ही किया । बारह वर्ष की घोर तपस्या के द्वारा जिस समय सूर्यहंस खड्ग उसके समीप आया, वह हाथ बढ़ाकर उसे ले भी नहीं सका और अपने वर्षों के तीव्र अरमान को मन में लिए हुए ही काल के द्वारा दबोच लिया गया । विचार करने की बात है कि अत्यल्प समय भी उसे मिलता तो वह एक बार कम से कम अपने वर्षों के तप का सुन्दर फल हाथों में लेकर सन्तुष्टि प्राप्त करता। किन्तु काल को दया-माया कहाँ है ? उसने बेचारे शंबुक को चन्द क्षण भी नहीं दिये और उठाकर चल दिया । यह कैसे हआ और काल ने किस बहाने से उसे निर्जीव किया? यह हम आगे बताएँगे । अभी कुछ समय के लिए हमें अयोध्या की ओर चलना चाहिए। धर्मरूप राम एवं सत्यरूपी लक्ष्मण ___ अयोध्या में उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य एवं ब्रह्मचर्य आदि दस लक्षणरूपी दशरथ राजा राज्य करते थे। स्वाभाविक ही था कि इन दस लक्षणों का एकत्र होना धर्म को जन्म देता। तो दस लक्षणरूपी राजा दशरथ के यहाँ धर्मरूपी प्रथम पुत्र राम का जन्म हुआ और श्रद्धारूपी रानी सुमित्रा की कुक्षि से सत्यरूपी लक्ष्मण का । तारीफ की बात तो यह है कि दोनों का स्वभाव भी अपने अनुरूप ही था। धर्म जिस प्रकार गम्भीर, शान्त, सहनशील एवं सभी को लेकर चलने वाला होता है वैसे राम थे और सत्य महान् होने पर भी कटु एवं तेज होता है, ठीक वैसे ही लक्ष्मण । रामायण के एक-दो प्रसंग इन दोनों भाइयों के स्वभाव का सही चित्रण करते हैं । उन्हें भी मैं संक्षेप में आपको बताए देता हूँ। महत्त्व भाषा का नहीं भावनाओं का होता है। जब राम और लक्ष्मण वन में जा रहे थे तो एक स्थान पर उन्हें कुछ समय ठहरना पड़ा । वहाँ पर रहने वाले निषादों के राजा गुह ने जब उन्हें देखा और उनके सम्पर्क में आया तो वह राम का परम भक्त बन गया और अत्यन्त स्नेह करने लगा। किन्तु वह भील था और उसने कहीं शिक्षा प्राप्त नहीं की थी, अतः शिष्टाचार और आदर-सम्मान की भाषा उसे नहीं आती थी । राम, लक्ष्मण व सीता को किसी प्रकार की तकलीफ न हो, बस उसे यही ध्यान रहता था और उससे जितनी बनती, सेवा करता रहता था। वह दिन में कई बार आता और किसी वस्तु की आवश्यकता तो नहीं है यह पूछता तथा स्नेहपूर्ण सरल भाव से बातें किया करता था । पर मैंने अभी बताया था कि उसे भाषा के शिष्टाचार का ज्ञान नहीं था, अतः वह राम को 'तू' या 'तेरा' आदि सम्बोधनों से पुकारा करता था। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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