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आध्यात्मिक दशहरा मनाओ ! ८३
वीतराग प्रभु ने मनोयोग को इतना बलवान बताया है कि भावनाओं की उत्कृष्टता जीव को आधे क्षण में मोक्ष में पहुँचा देती है और उनकी निकृष्टता आधे ही क्षण में सातवें नरक का बन्ध करा देती हैं ।
ऐसी स्थिति में बीती हुई उम्र के लिए पश्चात्ताप करना कोई बुद्धिमानी की बात नहीं है । व्यक्ति को जब उसकी आत्मा जाग जाये, तभी सबेरा मानना चाहिए और जितनी उम्र बची हो उससे अविलम्ब लाभ उठाने का प्रयत्न करना चाहिए | क्योंकि जो समय बीत चुका है, वह तो पुनः लौटकर आने वाला है नहीं, तब बचे हुए को क्यों नष्ट करना ?
किसी कवि ने ठीक ही कहा हैपुत्र कलत्र सुमित्र
चरित्र,
धरा धन धाम है बन्धन जी को, बारहिं बार विषैफल खात,
अघात न जात सुधारस फीको । आन, औसान तजो अभिमान,
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कहीं सुन नाम भजो सिय-पी को, पाय परम पद हाथ सों जात,
गई सो गई अब राख रही को ||
कहने का अभिप्राय यही है कि पुत्र, पौत्र, मित्र, पत्नी, जमीन, मकान एवं धन-सम्पत्ति आदि सभी जीव के लिए कर्म - बन्धनों के कारण हैं और इन्हीं के कारण उसे जन्म-जन्म में दुःख उठाने पड़ते हैं । ये सब ऐसे विषमय फल हैं कि उनका जहर या प्रभाव अनेक जन्मों तक भी नहीं मिटता और नाना प्रकार के दुःख पहुंचाता रहता है । किन्तु फिर भी अज्ञानी प्राणी सांसारिक सुखों के लोभ में आकर या अपनी इन्द्रियों को तृप्त करने के लिए बार-बार इन्हें ग्रहण करते हैं और दुखी होते हैं ।
वे भूल जाते हैं कि अनन्त दुःख के सामने इस क्षणिक जीवन का झूठा सुख कितना अल्प है । इसीलिए कवि ने कहा है- " मन में समझदारी और विवेक लाकर सांसारिक ऐश्वर्य की प्राप्ति के अभिमान को छोड़कर सीता के पति श्री रामचन्द्र का स्मरण करो और बीती हुई जिन्दगी के लिए पश्चात्ताप न करके जो बची हुई है, उसी को सार्थक बनाओ ।" अन्यथा न जाने किस समय काल बली का आक्रमण हो जाएगा और वह तुम्हारी समस्त इच्छाओं, आशाओं और सुख- स्वप्नों को एकक्षण में मटियामेट करके तुम्हें इस पृथ्वी पर से उठा ले जाएगा ।
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