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________________ आध्यात्मिक दशहरा मनाओ ! ८५ धर्मरूपी राम तो हृदय की भावनाओं के पारखी थे, अतः उसके सम्बोधन पर तनिक भी अप्रसन्न न होते हुए बड़े प्रेम से उसकी बात का उत्तर देते थे और वार्तालाप किया करते थे। उनके हृदय में गुह की बात या रेकारे-तुकारे से तनिक भी फर्क नहीं पड़ता था। किन्तु जैसा कि सत्य कटु यानी कठोर होता है, लक्ष्मण भीलराज के राम के प्रति किये जाने वाले सम्बोधनों को ओछे एवं असभ्यतापूर्ण समझते थे तथा मन ही मन तीव्र क्रोध से भर जाया करते थे। वे सोचते थे—“मेरे जिस भाई की संसार पूजा करता है, उन्हीं को यह चाण्डाल तू-तड़ाक से सम्बोधित करता है।" बहुत दिन तक तो भाई के लिहाज से वे सब्र करते रहे किन्तु जब सब्र का घड़ा भर गया तो एक दिन वे आग-बबूला होकर निषादराज को जान से ही मार देने के लिए उठे। पर राम जो कि धर्म का साक्षात् अवतार थे, उन्होंने हँसते हुए अपने भाई का हाथ पकड़कर उसे ऐसा अप्रिय कार्य करने से रोक दिया तथा प्यार से बन्धु को समझाते हुए बोले-“लक्ष्मण ! यह क्या करते हो ? क्या तुम इस सरल और भोले भक्त के शब्दों को ही सब कुछ समझते हो ? इन शब्दों के पीछे रही हुई भावनाओं को नहीं देखते ? यह मुझे कैसे भी सम्बोधन करे पर इसके हृदय में मेरे और तुम्हारे प्रति प्यार का अथाह सागर है । उसे पहचानो और उसकी कद्र करो। शब्दों का महत्त्व नहीं होता, महत्त्व तो भावनाओं का होता है।" भाई के वचन सुनकर लक्ष्मण लज्जित हुए और उन्होंने गुह को मारने का विचार छोड़ दिया। ___ माता के द्वारा खिलाये मिष्टान्नों से अधिक प्रिय जूठे बेर दूसरी एक और इसी प्रकार की घटना है कि राम जब वनवास में थे तब एक बार ऋषियों के आश्रमों की ओर निकल पड़े। वहाँ निवास करने वाले ऋषियों को जब यह ज्ञात हुआ तो वे अत्यन्त आनन्दित हुए और भगवान राम के स्वागतार्थ सभी ने यथाशक्य तैयारियां कीं । कन्द-मूल और फलों के ढेर लग गये और तीव्र उत्सुकतापूर्वक सब राम के पधारने की प्रतीक्षा करने लगे। ___ आश्रमों के समीप ही एक शबरी नामक भीलनी भी रहा करती थी। भगवान राम की वह अनन्य भक्त थी और सदा उनके पवित्र नाम का स्मरण किया करती थी। पर जब उसने भी सुना कि आज राम-लक्ष्मण इधर ही आ रहे हैं तो उनके साक्षात् दर्शन कर पाने की इच्छा से वह आनन्द-विह्वल हो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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