SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 389
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७६ आनन्द प्रवचन : सातवां भाग ऐसा करने वाला शिष्य ही क्षमाधर्म को अपनाकर संवर के मार्ग पर बढ़ सकेगा। क्षमा से बढ़कर इस संसार से मुक्त कराने वाला अन्य कोई भी तप नहीं है और कोई भी धर्म नहीं है। इसीलिए कहा जाता है—'क्षमा वीरस्य भूषणम् ।' यानी क्षमा शूरवीरों का आभूषण है। क्षमावान कायर नहीं है अनेक व्यक्ति कहते हैं कि क्षमा मनुष्य को कायर बनाती है। वही व्यक्ति क्षमा करते हैं जो अशक्त, निर्बल या डरपोक होते हैं। ऐसे विचार बड़े भ्रमपूर्ण एवं गलत हैं । सच्चे साधक कभी कायर या डरपोक नहीं कहलाते। आप लोगों को भली-भाँति समझना चाहिए कि साधक शारीरिक शक्ति होते हुए भी मनुष्य या खूख्वार प्राणियों को तो क्षमा करते ही हैं पर क्षमा धारण करके आत्मा के महान् एवं भयंकर शत्रु क्रोध तथा द्वेषादि को भी परास्त करते हैं । बाह्य शत्रुओं से मुकाबला करना कोई बड़ी बात नहीं है उन्हें सहज ही जीता जा सकता है, किन्तु कषायरूपी आत्मिक शत्रुओं को जीतना बड़े जीवट का काम है। लोग कहने को कह देते हैं कि क्षमाधारी डरपोक होता है, पर आप स्वयं अपने आप पर प्रयोग करके देखिये कि क्रोधरूपी शत्रु को अपने आत्मारूपी दुर्ग में आने से रोकना या कि क्रोधरूपी भयंकर विषधर को मारना कितना कठिन है। आप एक सर्प को देखते हैं और उसे मारकर अपनी बहादुरी साबित कर देते हैं। किन्तु क्या क्रोधरूपी उस विषधर को, जिसका काटा हुआ जन्मजन्म तक प्रभावित रहता है, उसे तनिक भी हानि पहुँचाने में या अपने पास से दूर हटाने में भी आप समर्थ हो पाते हैं ? नहीं, किसी का एक भी कटु शब्द सुनते ही वह क्रोध रूपी सर्प आपको इस प्रकार अपने लपेटे में ले लेता है कि आपके लिए उसे छुड़ाना तो दूर, छुड़ाने की कल्पना करना भी कठिन हो जाता है । अर्थात् क्रोध आपको इस प्रकार जकड़ता है कि उसे जीतने का या उसे दूर करने का भी आपको होश नहीं रहता । क्या आत्मा के इस भयंकर शत्रु पर आप विजय पा सकते हैं ? नहीं, आप केवल बाहरी और तुच्छ प्राणियों को एक के बदले में सौ गालियाँ देकर या शरीर कुछ मजबूत हुआ तो उसे लात-घूसे मारकर अपनी बहादुरी साबित करते हैं। ___ अब आप ही बताइये कि शारीरिक शक्ति का प्रदर्शन करना कठिन है या आन्तरिक शत्रुओं पर कब्जा करना ? स्पष्ट है कि बाह्य प्राणियों पर बल प्रयोग करना कुछ भी कठिन नहीं है, वरन् आन्तरिक शत्रुओं पर कब्जा करना या उन्हें परास्त करना महा मुश्किल है। साधक इसीलिए वीर हैं, क्योंकि वे उन आत्मिक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy