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क्षमा वीरस्य भूषणम्
गुरुगत ज्ञान हासिल ही नहीं कर पाता, और जो कुछ सीखता है, उससे आत्मकल्याण नहीं कर पाता । कहा भी है
न उ सच्छंदता सेया लोए किमुत उत्तरे ।
- व्यवहारभाष्य पीठिका, ह अर्थात् — स्वच्छंदता लौकिक जीवन में भी हितकर नहीं है तो लोकोत्तर जीवन यानी साधक के जीवन में कैसे हितकर हो सकती है ?
विनयी शिष्य तो गुरु के द्वारा प्राप्त तिरस्कार और ताड़ना को भी वरदान मानते हैं तथा तनिक भी खिन्न या निराश न होते हुए श्रद्धापूर्वक ज्ञानार्जन करते रहते हैं ।
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बुद्ध वैज्ञानिक बन गया अलबर्ट आईन्सटीन संसार के परम विख्यात वैज्ञानिक हुए हैं। एक बार किसी छात्र ने उनसे पूछा
“सर ! सफलता का मन्त्र क्या है ?"
" गुरु के द्वारा तिरस्कृत होने पर भी हिम्मत न हारना ।" आईन्स्टीन ने तुरन्त उत्तर दिया |
छात्र ने चकित होकर पूछा - "वह कैसे ?"
वैज्ञानिक बोले – “भाई ! एक दिन मैं भी तुम्हारे समान विद्यालय में पढ़ता था । पर गणित में बहुत कमजोर था अतः सभी छात्र मुझे बुद्धू कहते और मेरे शिक्षक भी समय-समय पर डाँटते हुए कहा करते थे - तुम इतने मूर्ख हो कि सात बार जन्म लेकर भी गणित नहीं सीख सकते।' इस प्रकार मैं बहुत बार तिरस्कृत होता रहा, लेकिन मैंने कभी अपने अध्यापकों की बात का बुरा नहीं माना और मेहनत करते हुए पढ़ता रहा । परिणाम यह हुआ कि केवल गणित में ही नहीं, मैं सभी विषयों में खूब नम्बर लाने लगा और आज तुम मुझ बुद्धू को इस रूप में देख ही रहे हो ।"
वस्तुतः ज्ञान-प्राप्ति का मूल मंत्र यही है । 'श्री उत्तराध्ययनसूत्र' में भी कहा है—
जं मे बुद्धाणुसांसति सीएण फरुसेण वा । मम लाभो त्ति पेहाए पयओ तं पडिसुणे ॥
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गाथा में बताया गया है कि — गुरुजन कठोर अनुशासन रखते हुए शिक्षा दें, तब भी शिष्य को यही विचार करना चाहिए कि यह कठोर शिक्षा मेरे लिए हितकर है और इस प्रकार भाव रखने हुए उसे सावधानी के साथ सुनना चाहिए ।
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