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क्षमा वीरस्य भूषणम्
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और जबर्दस्त शत्रुओं को अपने अन्दर फटकने भी नहीं देकर जीत लेते हैं, जिनके एक झपेटे से ही आप हथियार डाल देते हैं तथा वे जिस प्रकार नचाते हैं, नाचने लगते हैं । क्या यह गलत बात है ? नहीं, क्रोध का भूत आपके मस्तक पर चढ़कर आपसे वही करा लेता है जो वह चाहता है, उसे किसी भी तरह आप दिल या दिमाग से निकाल नहीं सकते, किन्तु क्षमाशील साधक उसे दिल के द्वार से अन्दर ही नहीं आने देता, उसका मस्तक पर चढ़ना तो दूर की बात है।
इसलिए बन्धुओ, क्षमाशील ही सच्चा वीर या महावीर है। वही सच्चा साधक है और मुक्ति-मार्ग का अनुयायी है । अपने मार्ग पर बढ़ते हुए वह कषायों को मार्ग रोकने नहीं देता, उनसे प्रभावित नहीं होता और जब वे दूर खड़े मुंह बाये रहते हैं यह वीर हाथी के समान किसी की परवाह किये बिना निरन्तर अग्रसर होता रहता है।
यही कारण है कि मुनि के लिए दस धर्मों का विधान करते समय क्षमाधर्म को पहला और मुख्य स्थान दिया गया है । क्षमा-धर्म साधु व श्रावक दोनों के लिए समान हितकारी है, क्योंकि दोनों ही मुक्ति-मार्ग के पथिक हैं। अगर आप इसे धारण करेंगे तो निश्चय ही मुक्ति के पथ पर तीव्र गति से अग्रसर होते रहेंगे।
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