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संघस्य पूजा विधिः
धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो !
हमारे जिन शासन में साधु-साध्वी एवं श्रावक-श्राविका, यह चतुर्विध संघ बहुत ही महत्त्वपूर्ण माना गया है । अगर यह संघ अपने कर्तव्य यथाविधि पालन करता है तथा इसका प्रत्येक सदस्य अपने आचरण में विवेक को स्थान देता है। या विवेकपूर्वक कार्य करता है तो कभी विवाद उत्पन्न नहीं होता । किन्तु जिन व्यक्तियों का विवेक सुप्त रहता है वे अपने कार्यों से संघ में खड़बड़ाहट और अशान्ति पैदा कर देते हैं । परिणाम यह होता है कि सम्पूर्ण संघ उससे प्रभावित होकर परेशानी का अनुभव करने लगता है । अतः एक महिमामय संघ के सदस्य होने के नाते प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ओर से कभी ऐसा अवसर न आने देना चाहिए, जिसके कारण आपस में वैमनस्य पैदा हो अथवा झगड़ा झंझट बढ़े । विरोध की अग्नि बढ़ न पाये अपितु शान्त हो, यही प्रयत्न प्रत्येक व्यक्ति को करना चाहिए। आप जानते ही हैं कि आग में ईंधन या घी होमने से वह बढ़ती है तथा शीतल जल डालते ही शान्त हो जाती है । इसीलिए अगर मनुष्यों के दिलों में कभी विरोध या वैमनस्य की अग्नि प्रज्वलित हो भी उठे तो अन्य व्यक्तियों को घृत रूपी बढ़ावा न देकर उसे अपने मधुर एवं शीतल वचनों से शान्त करना चाहिए । ऐसा करने से जो थोड़ी गड़बड़ होती भी है तो समाप्त हो जाती है ।
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किन्तु, हम देखते हैं कि आज के व्यक्ति संघ का महत्त्व एवं अपने कर्तव्य को एक ओर रखकर तूली लगाते हुए तमाशा देखने वाली कहावत चरितार्थ करते हैं यानी किन्हीं दो व्यक्तियों में परस्पर मतभेद हो जाय तो उसे मिटाने की अपेक्षा और बढ़ावा देते हैं तथा उसे तमाशा समझकर अपना मनोरंजन करते हैं । अधिकतर व्यक्ति ऐसे होते हैं जो किसी न किसी पक्ष को और भी
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