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________________ संघस्य पूजा विधिः ३५५ उकसाकर मनोमालिन्य बढ़ा देते हैं । विरोध तो दो में होगा पर उसे शान्त न करते हुए अनेक व्यक्ति एक-एक पक्ष की तरफ हो जाते हैं और अनेक दूसरे पक्ष की तरफ । फल यह होता है, फूट की खाई गहरी और शीघ्र न भरने वाली हो जाती है। वैमनस्य क्यों होता है ? संक्षेप में इसका उत्तर दिया जाय तो कहा जा सकता है कि 'ही' से झगड़ा पैदा होता है और 'भी' से समाप्त हो जाता है। जहाँ किसी व्यक्ति ने या किसी 'मत' ने कहा-ऐसा ही है, वहाँ समझो कि झगड़ा पैदा हो गया और जहाँ यह मान लिया कि-ऐसा भी होता है वहाँ झगड़ा समाप्त । विश्व में जितने एकान्तवादी पन्थ हैं वे अपने-अपने मत जैसे-काल, नियति, पुरुषार्थ एवं निमित्तादि को ही पूर्ण सत्य मानकर शेष मतों का तिरस्कार करते हैं। प्रत्येक मत के अनुयायी अपने मत को सम्पूर्ण मानकर दूसरे मतों की या धर्मों की निंदा करते हैं और इसके कारण धर्म के नाम पर घोर विवाद खड़े हो जाते हैं । वे भूल जाते हैं कि हम जिस बात को मानते हैं वह भी धर्म का ही अंग है। उदाहरणस्वरूप, एक माला को लिया जाय । अगर कुछ व्यक्ति कहें कि माला का अर्थ मनके हैं और दूसरे कहें-नहीं माला डोरी को कहते हैं । ऐसी स्थिति में हम सहज ही समझ सकते हैं कि मनके और डोरी दोनों ही माला हैं, यानी दोनों मिलकर माला कहलाते हैं । ऐसा कहने पर न मनकों का महत्त्व कम होता है, न ही माला का । यही जैनदर्शन का स्याद्वाद सिद्धान्त है । स्याद्वाद सिद्धान्त स्याद्वाद सिद्धान्त किसी भी मत को असत्य नहीं मानता और न ही किसी एक को सम्पूर्ण मानता है । वह कहता है - 'भाई ! तुम जिस एक बात को पकड़कर बैठे हो वह सम्पूर्ण नहीं है धर्म का एक ही अंश है।' इस प्रकार प्रत्येक मत के प्रत्येक सिद्धान्त को वह धर्म का एक-एक अंग मानता है तथा समझाता है कि जब इन्हीं सब अंगों के समूह का नाम धर्म है तो आपस में झगड़ते क्यों हो ? अगर तुम अपने सिद्धान्त को सत्य मानते हो तो दूसरों के सिद्धान्तों को भी सत्य समझो, अन्यथा दूसरे को गलत कहने से तुम भी गलत हो जाओगे; क्योंकि तुम्हारा सिद्धान्त भी तो ओरों की तरह सत्यांश को ही प्रकट करता है। यही विचारधारा स्याद्वाद कहलाती है । इस अनुपम सत्य को मानने से ही धर्मों, दर्शनों, सम्प्रदायों, मतों एवं पन्थों में वैमनस्य होता है और कभी-कभी घोर अशान्ति का वातावरण बन जाता है । कालवादी कहते हैं-प्रत्येक कार्य समय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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