________________
३५२ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
पशु के समान हैं । इसलिए प्रत्येक मानव को मानवोचित गुणों का संग्रह करना चाहिए, और वे गुण संत-महापुरुषों के संपर्क से, उनके आचरण से एवं उनके धर्मोपदेश सुनने से मिल सकते हैं । वीतराग प्रभु की वाणी को संत पुरुष ही जन साधारण तक पहुँचाते हैं अतः पूर्ण उत्साह, लगन, जिज्ञासा, विनय एवं निरभिमानतापूर्वक ऐसे सद्गुरुओं के वचनों को जिस प्रकार और जहाँ भी सम्भव हो सुनने व समझने का प्रयत्न करना चाहिए । इसके अलावा और कोई मार्ग आत्मोत्थान का नहीं है ।
कवि सुन्दरदास जी ने सच्चे गुरु की पहचान बताते हुए अपने एक पद्य में लिखा है
लोह कों ज्यों पारस पखान हु पलटि देत,
कंचन छुअत होय जग में प्रमानिये । द्रुम कों ज्यों चन्दन हु पलटि लगाइ बास,
आपके समान ताके सीतलता आनिये ।। कीट कों ज्यों भृंग हू पलटि कै करत भृंग,
सुन्दर
सोऊ उड़ि जात ताको अचरज न मानिये । कहत यह सगरे प्रसिद्ध बात, सद्य सिस्य पलटै सु सत्य गुरु मानिये ||
इस पद्य की भाषा यद्यपि अलंकारिक या उच्चकोटि की नहीं है, किन्तु भाव उच्चकोटि के हैं । इसमें कहा है – “जिस प्रकार पारस पत्थर लोहे को स्पर्श कर उसे सोना बना देता है, चन्दन का वृक्ष अन्य साधारण वृक्षों को भी अपने समान शीतल एवं सुगन्धित कर देता है तथा भ्रमर एक तुच्छ कीड़े के ऊपर मँडरा-मँडराकर उसे भी अपने समान भ्रमर बनाकर उड़ने में समर्थ कर देता है उसी प्रकार जो सच्चे गुरु होते हैं वे अपने शिष्य को भी अविलम्ब अज्ञानी से ज्ञानी बना देते हैं यह जगत प्रसिद्ध बात है ।
पर भाइयो! शिष्य में ज्ञान भले ही न हो पर ज्ञान प्राप्त करने की तीव्र चाह और अपने गुरु के प्रति आस्था तथा विनयभाव अनिवार्य रूप से होना चाहिए | अन्यथा वह गुरु को भी क्रोधी, खिन्न और दुःखी बना देता है । कहा भी है—
बालं सम्मइ सासंतो, गलियस्सं व वाहए ।
बाल यानी क्रोधी, जड़, मूढ़ एवं अविनीत शिष्यों को शिक्षा देता हुआ गुरु उसी प्रकार पीड़ित एवं खिन्न होता है जैसे अड़ियल एवं उच्छृंखल घोड़े पर सवारी करता हुआ सवार ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org