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________________ मोक्ष गढ़ जीतवा को ३५१ इस घोषणा को सुनकर अनेक व्यक्तियों को क्रोध आया और वे कहने लगे "हम क्या बेकार हैं जो हमेशा भटकते रहेंगे ?" अन्त में हुआ यह कि तीसरे दिन लगभग सौ व्यक्ति ही प्रवचन सुनने के लिए पहुँचे । पर तीसरे दिन भी प्रवचन नहीं हुआ और अगले दिन के लिए स्थगित हो गया। पर तीसरे दिन भी प्रवचन न होने पर आये हुए कई व्यक्ति आग-बबूला हो गये और क्रोध के मारे पंडाल के खम्भे उखाड़कर कपड़ों को फाड़-फूड़ गये । ___अब आया चौथा दिन । इस दिन केवल पाँच-सात व्यक्ति प्रवचन सुनने आये । जॉन रस्किन भी ठीक समय पर आ पहुंचे और बोले “भाइयो ! मैं अस्वस्थ नहीं था, केवल यह जानना चाहता था कि लोगों की उस भारी भीड़ में सच्चे ज्ञान-पिपासु कौन-कौन से हैं ? तीन दिन प्रवचन स्थगित करने पर अब मुझे आपकी सही पहचान हो गई है। मैं आप लोगों को यानी ज्ञान-प्राप्ति की सच्ची चाह रखने वाले आप लोगों को ही कुछ बताना चाहता था, उस व्यर्थ की भीड़ को नहीं।" बन्धुओ, इस सुन्दर उदाहरण से आप समझ गये होंगे कि ज्ञान की सच्ची चाह कैसी होती है ? जो व्यक्ति वास्तव में ही ज्ञानेच्छु थे, वे तीन दिन लौटकर जाने पर भी निराश नहीं हुए और ज्ञान-प्राप्ति की अभिलाषा लिए चौथे दिन भी उपस्थित हो गये, किन्तु जिनमें कुछ जानने-समझने की सच्ची लगन नहीं थी वे एक-दो दिन में ही क्रोधित होकर अपने धंधों में लग गये । ऐसे व्यक्ति सच्चा ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं क्या ? कभी नहीं ! शास्त्रों में कहा गया है अह पंचहि ठाणेहि, जेहि सिक्खा न लब्भई । थंभा कोहा पमाएणं, रोगेणालस्सएण वा ॥ -उत्तराध्ययनसूत्र, ११-३ अर्थात्-अहंकार, क्रोध, प्रमाद, रोग एवं आलस्य इन पाँच कारणों से व्यक्ति शिक्षा या ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। इसीलिए भजन में कहा गया है—'हे चेतन ! तू पहले अहंकार, क्रोध एवं अविनय आदि को छोड़कर ज्ञान प्राप्त कर ले, जिससे सच्चा इन्सान बन सके। ___इन्सान का अर्थ हमें मनुष्य की आकृति से नहीं लेना है अपितु इन्सानियत या मानवता की दृष्टि से लेना है। आकृति से तो असंख्य इन्सान हैं किन्तु इन्सानोचित गुणों का अभाव होने से वे इन्सान दिखाई देते हुए भी अज्ञानी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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