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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
प्राप्त नहीं होता, उसके लिए भी बहुत प्रयत्न करना पड़ता है और बहुत ठोकरें खानी होती हैं । आप समझ ही सकते हैं कि मात्र इस जीवन में काम आने वाले धन के लिए भी आपको कितना परिश्रम रात-दिन करना पड़ता है और बम्बई, मद्रास यहाँ तक कि विदेशों में भी भटकना पड़ता है । तब फिर ज्ञानरूपी धन, जो कि जन्म-जन्म तक अपना फल देता है, वह सहज ही कैसे हासिल हो जाएगा ? आप लोक-लज्जा से प्रवचन में आकर बैठ जाएँ पर मन कहीं और धूमता फिरे तो क्या ज्ञान का शतांश भी आप पा सकेंगे? इसी प्रकार गुरुजी ने थोड़ा-सा डाँट-फटकार दिया या एक-दो दिन तक नहीं पढ़ाया तो तीसरे दिन आप उनका मुँह भी न देखेंगे। ऐसी स्थिति में क्या ज्ञान आपको हासिल हो सकेगा ? नहीं, ज्ञान-प्राप्ति के लिए एकलव्य जैसी उत्कट लगन चाहिए। एकलव्य भील-बालक था अतः द्रोणाचार्य ने उसे धनुर्विद्या सिखाने से इन्कार कर दिया।
किन्तु वह धनुर्विद्या या धनुष चलाने का ज्ञान प्राप्त करना चाहता था अतः द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर उसके सामने ही बड़ी लगन और तन्मयता से अभ्यास करने लगा। फल यह हुआ कि वह द्रोण के शिष्यों की अपेक्षा भी कुशल निशाना-साधक बन गया ।
कहने का अभिप्राय यही है कि ज्ञान सीखने वाले को मानापमान का भाव त्यागकर आग्रह और हार्दिक लगन से जैसे भी हो उसे प्राप्त करना चाहिए । जिनके अंतर में ज्ञान की तीव्र पिपासा होती है, वे कभी गुरु की फटकार, उनकी रुक्षता या इसी प्रकार अन्य किसी भी बात की परवाह नहीं करते । सच्ची ज्ञान पिपासा
कहते हैं कि एक बार रस्किन के ज्ञान का लाभ उठाने के लिए उनके प्रवचन का आयोजन किया गया । हजारों व्यक्ति उनका व्याख्यान सुनने के लिए समय पर वहाँ पहुँचे। पंडाल भर गया अत: लोगों को बाहर भी खड़ा होना पड़ा।
किन्तु ठीक प्रवचन प्रारम्भ होने के समय पर लाउड-स्पीकर से घोषणा हुई कि-"जॉन रस्किन का स्वास्थ्य ठीक नहीं है अत: प्रवचन आज न होकर कल होगा।" लोग यह सुनकर अपने-अपने घरों को लौट गए।
अगले दिन बहुत से लोगों ने सोचा-"कौन रोज-रोज समय बर्बाद करे।" इस प्रकार पहले दिन से आधे व्यक्ति ही दूसरे दिन प्रवचन-स्थल पर पहुँच पाये । किन्तु उस दिन भी पहली वाली घोषणा दोहराई गई कि-"रस्किन साहब का स्वास्थ्य ठीक नहीं हुआ अतः प्रवचन कल इसी समय होगा।"
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