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________________ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग श्री उत्तराध्ययन सूत्र में भी जीव की महिमा का वर्णन करते हुए कहा गया है ३४० सरीरमाहु नावत्ति, जीवो बुच्चइ नाविओ । संसारो अण्णवो वृत्तो, जं तरंति महेसिणो ॥ गाथा का अर्थ है - यह शरीर नौका के समान है, जीवात्मा उसका नाविक है और संसार समुद्र है । महर्षि इसी देह रूपी नौका के द्वारा संसार सागर को पार करते हैं । जिस प्रकार श्री त्रिलोक ऋषि जी महाराज ने आत्मा को राजा इन्द्रियादि को सेना और संसार को रणस्थल बताकर आत्मा की महत्ता साबित की है, इसी प्रकार शास्त्र की इस गाथा में केवल उपमाओं का अन्तर है पर नाविक के रूप में आत्मा का महत्त्व राजा के समान ही बताया है । संसार अगर रणस्थल माना जाय तो भी संग्राम करना बहुत कठिन है और सागर माना जाय तो उसे पार करना भी कठिन है । इस प्रकार आत्मा राजा के रूप में और संसार - सागर को पार करने वाले नाविक के रूप में भी उतना ही महत्त्व रखती है । दूसरे शब्दों में आत्मा राजा के समान है, तभी संसार रूपी रणस्थल में काल जैसे भयानक शत्रु से जीत सकती है और नाविक के समान है अतः संसार रूपी विशाल सागर को पार कर सकती है जिसमें कषायों के समान भयंकर जीवजन्तु और काल रूपी तूफान शत्रु के समान छिपे हुए हैं जो देह-रूपी नौका की उलट देने की ताक में रहते हैं । तो अब हमें पूज्य श्री त्रिलोक ऋषि जी महाराज के पद्यानुसार जीव राजा के विषय में समझना है । पद्य में महाराज श्री ने बताया है कि जीवात्मा एक महिमामय राजा है और उसका मन्त्री सम्यक्त्व है । कथन पूर्णतया यथार्थ है । जिस प्रकार बुद्धिमान मन्त्री राजा को नेक सलाह देकर राज्य चलाने में सहायक बनता है और मूर्ख या दुष्ट मन्त्री गलत सलाहों से राजा को कुमार्ग पर चलाकर राज्य का अस्तित्व और कभी-कभी तो राजा का जीवन भी खतरे में डाल देता है; इसी प्रकार सम्यक्त्व नेक मन्त्री के रूप में जीवात्मा को संसार-संग्राम में विजयी बनाकर मोक्ष - गढ़ हासिल कराता है तथा मिथ्यात्व रूपी दुष्ट और कपटी मन्त्री उसे शक्तिहीन बनाकर कालरूपी शत्रु से पराजित करवाता है । इसके परिणामस्वरूप मोक्ष-गढ़ तो दूर की बात है, जीवात्मा को संसार भ्रमण करने और घोर दुःखों को सहन करने में ही अनन्तकाल व्यतीत हो जाता है तथा निश्चितता से कहीं पैर टिकाने का भी समय नहीं मिलता । आप विचार करेंगे कि पैर कैसे नहीं टिकते ? हमारे पैर तो आराम से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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