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मोक्ष गढ़ जीतवा को
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पृथ्वी पर टिके हुए ही हैं । यह आपका भ्रम है । आप सोचते हैं कि हमारे पैर टिके हुए हैं, पर जन्म लेने के बाद से ही अदृश्य रूप से काल प्रतिक्षण आपके पैरों को आयु के धक्कों द्वारा थोड़ा-थोड़ा करके मृत्यु के भयानक गर्त की ओर सरकाता जा रहा है। थोड़ा गहराई से विचार करने पर इसकी सत्यता आप की समझ में आ जायेगी।
इसीलिए मिथ्यात्व रूपी मन्त्री जीवात्मा के दुःख का कारण है और उसे कुमार्गगामी बनाकर गुमराह करने वाला है । पर अगर जीव को सम्यक्त्व रूपी मन्त्री मिल जाता है तो वह पथ-भ्रष्ट नहीं हो पाता तथा उसकी सलाह से अपने समस्त शत्रुओं से लोहा ले लेता है । आगम कहते हैं
कुणमाणोऽवि निवित्तं,
' परिच्चयंतोऽवि सयण-धण-भोए। दितोऽवि दुहस्स उरं, मिच्छद्दिट्ठी न सिज्झई उ ॥
-आचारांग नियुक्ति, २२० अर्थात्-एक साधक निवृत्ति की साधना करता है, स्वजन, धन और भोगविलास का परित्याग करता है, अनेक प्रकार के कष्टों को सहन करता है, किन्तु यदि वह मिथ्यादृष्टि है, यानी उस जीव का मन्त्री मिथ्यात्व है तो वह अपनी साधना में सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता।
ऐसा क्यों होता है ? इस विषय में भी 'उत्तराध्ययनसूत्र' में बताया गया है कि
नादंसणिस्स नाणं,
नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स णिव्वाणं ॥
-अध्ययन २८, गाथा ३० .कहा है-सम्यकदर्शन के अभाव में ज्ञान प्राप्त नहीं होता, ज्ञान के अभाव में चारित्र के गुण नहीं होते, गुणों के अभाव में मोक्ष नहीं होता और मोक्ष के अभाव में निर्वाण या शाश्वत आनन्द प्राप्त नहीं हो सकता।
इस प्रकार सम्यक्त्व रूपी मन्त्री ही जीव राजा को सही सलाह देकर कल्याण के मार्ग पर चलाता है और उसके अभाव में मिथ्यात्व गुमराह करके उसे मार्ग से भटका देता है। आगे राजा के खजाने के विषय में बताया है। जब राज्य है तो खजाना भी विशाल होना चाहिए। उसके अभाव में राज्य
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