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________________ मोक्ष गढ़ जीतवा को ३३६ दी है । शास्त्र-श्रवण करने से मानव धन और धर्म दोनों का अन्तर समझ सकता है तथा धन का मार्ग जो कि पाप का मार्ग है, उससे बचकर धर्म के कल्याणकर मार्ग पर चल सकता है। संक्षेप में, श्रुति यानी शास्त्र ही आत्मा के लिए जो उपयोगी है उस सन्मार्ग की पहचान या मार्ग-दर्शन कराकर मनुष्य को जीवन का सच्चा लाभ उठाने में सक्षम बना सकता है। मोक्ष-गढ़ विजयी राजा बन्धुओ, आज मुक्ति की अभिलाषा प्रत्येक व्यक्ति करता है। वह नरक के नाम से नफरत करता है और मोक्ष-प्राप्ति के लिए उत्सुक रहता है। किन्तु क्या नरक के नाम से घृणा करने पर और मोक्ष की चाह रखने पर ही जीव नरक में जाने से बच सकता है तथा मोक्ष के द्वार पर पहुँच सकता है ? नहीं, इसके लिए आत्मा को इस संसार-रूपी रणस्थल पर अपनी योग्य सेना के साथ काल रूपी महान् शत्रु के साथ घोर युद्ध करना पड़ता है और उसमें जीतने पर ही मोक्ष-रूपी किला हाथ आता है । इस विषय पर पूज्यपाद श्री त्रिलोक ऋषिजी महाराज ने एक अत्यन्त सुन्दर और मार्मिक पद्य लिखा है जिसे मैं आपके सामने रखने जा रहा हूँ। पद्य इस प्रकार हैजीव रूप राजा समकित परधान जाके, ज्ञान को भण्डार, शील रूप रथ सार के। क्षमा रूप गज, मन हय को स्वभाव वेग, ___ संजम की सेना तप आयुध अपार के ॥ सज्झाय वाजिंत्र शूभ ध्यान नेजा फरकत, रैयत छःकाय सो बचाय कर्म मार के। मोक्षगढ़ जीतवा को कहत तिलोक रिख, करिये संग्राम ऐसी धीरजता धार के ॥ इस पद्य में बहुत ही सुन्दर तरीके से बताया है कि आत्मा रूपी राजा का कौन मन्त्री है ? क्या उसका खजाना है ? कैसा रथ है ? कौन हाथी और घोड़ा है ? किस प्रकार की प्रजा और सेना है तथा वह किस प्रकार रण-भेरी बजाते हुए और नेजा फहराते हुए युद्ध करके मोक्ष रूपी गढ़ को फतह करता है ? सर्वप्रथम कविश्री ने जीव को राजा बताया है। वह इसलिए कि जीव के विद्यमान रहने पर और उसकी आज्ञा होने पर ही मन एवं इन्द्रियाँ अपनाअपना काम करते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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