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सुनकर सब कुछ जानिए
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करुणा का भाव रखते हुए छहों काय के जीवों की हिंसा से बचो । यह तभी हो सकता है, जबकि प्रत्येक व्यक्ति अन्य प्रत्येक सूक्ष्म या विशाल जीव को आत्मवत समझे, तथा यह विचार करे कि जिस प्रकार मैं मरना नहीं चाहता, उसी प्रकार संसार का सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव भी अपने प्राण बचाना चाहता है, मरना नहीं । चींटी बहुत छोटी होती है, उसे ज्ञान भी नहीं होता, किन्तु मरने से बचने का प्रयत्न वह भी कर लेती है। ___इस बात को हम सहज ही जान सकते हैं कि जब वह चलती है तब अगर हम उसके आगे हाथ रख दें तो वह रुक जाती है तथा शरीर को सिकोड़ लेती है । पर हाथ हटाते ही वह पुनः आगे बढ़ जाती है। कुछ कीड़े तो ऐसे होते हैं जो हाथ लगाते ही एकदम निश्चेष्ट होकर पड़ जाते हैं, जैसे मर चुके हों । पर कुछ देर में जब उन्हें यह महसूस होता है कि हमें छूने वाला यहाँ नहीं है तो शीघ्रतापूर्वक अपने अंगों को फैलाकर चल देते हैं । देखिए ! उनमें भी प्राण बचाने की कैसी बुद्धि या चतुराई होती है ? वे कपटपूर्वक अपने हाथ-पैरों को सिकोड़कर और निश्चेष्ट होकर मनुष्य को भी धोखा देना चाहते हैं, क्योंकि मरने से डरते हैं।
आप कहेंगे-अनेक व्यक्ति तकलीफ में होने पर सहज ही कहते हैं-"हे भगवान ! मौत दे दे।" पर क्या वे मन से ऐसा चाहते हैं ? कभी नहीं, मरने का समय आते ही वे काँप उठते हैं । स्पष्ट है कि मौत का आह्वान केवल उनकी जबान पर होता है मन में नहीं । आशय यही है कि मरने से प्रत्येक प्राणी डरता है और कोई भी उसे गले लगाना नहीं चाहता ।
शास्त्रों में कहा भी हैसव्वे पाणा पियाउआ, सुहसाया दुक्ख पडिकूला, अप्पियवहा पियजीविणो, जीविउकामा, सव्वेसि जीवियं पियं नाइवाएज्ज कंचणं ।
-प्राचारांगसूत्र १-२-३ अर्थात्-सब प्राणियों को अपनी जिन्दगी प्यारी है। सुख सब को अच्छा लगता है और दुःख बुरा । वध सभी को अप्रिय है और जीवन प्रिय । सब प्राणी जीना चाहते हैं, अर्थात् सभी को जीवन प्रिय है अतः किसी प्राणी की हिंसा मत करो।
आगे पद्य के तीसरे चरण में कहा गया है-"विवेकपूर्वक षट्काय के प्राणियों का संरक्षण करो, अगर तुम्हें 'कुख' के त्याग की और सुख की चाह है तो" संभवतः आप इस बात का अर्थ ठीक तरह से नहीं समझ पाये होंगे । देखिये
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