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________________ ३२६ आनन्द प्रवचन : सातवा भाग अर्थात्-अभी तक नहीं सुने हुए धर्म को सुनने के लिए तत्पर रहना चाहिए और सुने हुए धर्म को ग्रहण करने तथा उस पर आचरण करने के लिए भी तत्पर रहना चाहिए। सिंहनी का दुग्ध ____ बन्धुओ, आपने सुना होगा कि सिंहनी का दूध मिट्टी के तो क्या, ताँबे और पीतल के बर्तन में भी नहीं ठहरता, उन्हें तोड़कर बाहर निकल जाता है । वह दूध केवल सोने के पात्र में रहता है। ___ ठीक इसी प्रकार वीतराग के वचन भी होते हैं । जो सिंहनी के दूध की अपेक्षा भी अधिक महत्त्वपूर्ण एवं दिव्य होते हैं, फिर भला वे किस प्रकार दोषपूर्ण चित्त में रहेंगे ? कभी भी नहीं। वे उसी प्रकार निरर्थक चले जाएँगे जैसे फूटे हुए पात्र में दुहा गया गाय का दूध या फटी हुई बोरी में डाला गया अनाज । कहने का अभिप्राय यही है कि आगम के वचनों को रखने के लिए हमारे मन रूपी पात्र अश्रद्धा के छिद्रों से रहित एवं कषायों की मलिनता से विशुद्ध होने चाहिए। हमें विचार करना चाहिए कि अनन्तकाल तक तो जीव चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता रहा है और कोई भी योनि ऐसी नहीं मिली, जिसमें धर्म-भावना जागृत होती या बोध प्राप्त करने की क्षमता होती । महान् पुण्यों के योग से यह मानव-योनि ही सुवर्ण के पात्र के समान मिल पाई है, जिसमें भगवान के वचन ठहर सकते हैं । किन्तु खेद की बात है कि नर देह रूपी इस सुवर्ण के पात्र को भी हमने क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष आदि नाना प्रकार की गन्दगी से भर दिया है अतः प्रभु के वचन या सिंहनी के दुग्धवत् धर्म इसमें अपने शुद्ध रूप में नहीं ठहर पाता । इसलिए आवश्यक है कि हम अपने मन रूपी सुवर्ण-पात्र को विवेक के द्वारा शुद्ध करें तथा प्रभु के द्वारा बताये गये धर्म का मर्म समझें। धर्म का मुख्य लक्षण ___कल मैंने पूज्यपाद श्री त्रिलोक ऋषिजी महाराज का एक पद्य आपके सामने रखा था जिसमें बताया गया है कि जितने भी इस जगत में प्राणी हैं वे सभी कर्मरूपी फाँसी से कष्ट पा रहे हैं । ऐसा क्यों हुआ ? इसलिए कि उन्होंने अधर्म के द्वारा कर्मों का घोर बन्धन कर लिया और जब तक उन्हें नष्ट नहीं किया जाएगा, जीव शांति की साँस नहीं ले सकेगा। प्रश्न होता है कि कर्मों का नाश कैसे किया जा सकता है ? महाराज श्री ने पद्य में ही धर्म का मुख्य लक्षण अहिंसा बताते हुए कहा है कि सदा हृदय में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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