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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
'कुख' से यहाँ तात्पर्य है माता की कुक्षि । स्वाभाविक ही है कि माँ की कुक्षि में आने पर अर्थात् जन्म लेने पर फिर मरण निश्चय ही होगा; अतः अगर व्यक्ति कुक्षि की चाह नहीं करके जन्म-मरण को मिटाकर शाश्वत सुख पाना चाहता है तो उसे हिंसा से बचना चाहिए | क्योंकि हिंसा से कर्मों का बन्धन होगा और तब पुनः पुनः जन्म लेना तथा मरना पड़ेगा ।
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अब पद्म का चौथा चरण आता है, इसमें कवि श्री ने कहा है- "मरुदेवी माता ने बोधि- दुर्लभ - भावना भाई और केवलज्ञान प्राप्त करके संसार से मुक्त हो गई । माता मरुदेवी हमारी चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की जननी थीं ।"
ऋषभदेव ने तो मुनिधर्म ग्रहण कर लिया और आत्म-साधना में जुट गये । किन्तु माता का सन्तान के प्रति बड़ा जबर्दस्त मोह होता है । मरुदेवी भी माता थीं अतः मोहवशात् उन्होंने अपने पौत्र भरत चक्रवर्ती को स्नेहपूर्ण उपालम्भ देते हुए कहा
" भरत ! ऋषभ तो गया और लौटकर आया ही नहीं, पर तू भी राज्य में ऐसा लुब्ध हो गया कि मेरे ऋषभ की खबर नहीं मँगाता !”
पर इसके बाद ही सौभाग्यवश यत्र-तत्र विचरण करते हुए भगवान ऋषभदेव विनिता या अयोध्या नगरी में पधारे । आपको मालूम ही होगा कि प्राचीनकाल में सन्त नगर के बाहर किसी बगीचे आदि में ठहरा करते थे और जब वनपालक नगर में आकर मुनिराज के पधारने की सूचना देता था तब राजा अपनी प्रजा एवं परिवार सहित उनके दर्शनार्थ जाया करते थे ।
भगवान ऋषभदेव भी विनिता नगरी के बाहर उद्यान में आकर ठहरे तथा उनके पधारने की सूचना नगर में पहुँची। सभी के हृदय हर्ष से विभोर हो उठे और भगवान की माता मरुदेवी का तो कहना ही क्या था ! वे प्रसन्नता से पागल हो उठीं और उसी समय अपने पुत्र के दर्शनार्थ जाने को तैयार हो गईं ।
चक्रवर्ती भरत माता मरुदेवी एवं अन्य समस्त प्रजाजनों के साथ बड़े हर्ष और ठाट-बाट साथ भगवान के दर्शनार्थ रवाना हुए । मरुदेवी हाथी पर विराजमान थीं । चलते-चलते जब दूर से ही उन्होंने देखा कि उद्यान में सन्तसाध्वी एवं श्रावक-श्राविका, इस प्रकार चारों तीर्थ मौजूद हैं तो कुछ क्षणों के लिए उन्हें विचार आया- "मेरे ऋषभ के लिए क्या कमी है ? इसकी हाजिरी में तो लाखों व्यक्ति सदा उपस्थित रहते हैं, इसीलिए वह मुझे भूल गया ।"
किन्तु अद्भुत संयोग था कि उसी समय मरुदेवी के विचारों ने पलटा खाया और वे सोचने लगीं - " अरे मन ! ऋषभ तो सबका मोह त्याग कर आत्म
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