________________
३२२
आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
बहुत काल तक उन्हें व्यर्थ गँवाया, क्योंकि इन्द्रियों के विषयों में वह लुब्ध रहा और सदाचार का पालन नहीं कर सका । पर उसके बाद दुर्लभ पुण्यों के उदय से अपने ज्ञान और दर्शन को कुछ समय के लिए आचार में उतारा तो ज्योंही कषाय का एक प्रबल झोंका आया, मन पुनः डाँवाडोल हो गया और रत्नत्रय मानो हथेली में आकर भी छूट गये।।
इस प्रकार भव-सागर को पार करने के लिए जो मानव-देह रूपी दिव्य और दुर्लभ नौका प्राप्त की थी, वह कषायों के तीव्र थपेड़ों से मझधार में डूब गई और जीव पुनः कुगतियों के चक्कर में पड़ गया। ऐसे जीवों के लिए दयार्द्र होकर कवि ने आगे कहा है
कितने कष्ट सहन करके फिर मानव भव पाएँगे ? अपनी खोई हुई सम्पदा किस प्रकार पाएँगे ? जो चाहो कल्याण, कषायों से तो नाता तोड़ो । दुख-कारण मिथ्यात्व-शत्रु को हाथ दूर से जोड़ो ! धन्य धन्य हैं पूरुष-रत्न वे जो रत्नत्रय पाते । विषयों को विष जान दृष्टि उस ओर नहीं ले जाते ॥ दुर्लभ बोधि प्राप्त कर अपना जीवन सफल बनाते।
वे अक्षय सुख-धाम मुक्ति पा नहीं लौटकर आते ।। जैसा कि कवि ने कहा है-वस्तुतः अनन्त जीव ऐसे होंगे, जिन्होंने मनुष्य जन्म और उसके साथ किसी तरह सम्यक्ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र पाकर भी कषायों की आग से उन्हें अल्पकाल में नष्ट कर दिया होगा और आज वे न जाने कौन-कौन-सी दुर्गतियों में घोर कष्ट पा रहे होंगे । लगता है कि अब उन्हें न जाने कब तक मानव-जीवन मिलेगा और कब वे रत्नत्रय रूपी अपना खोया हुआ अमूल्य धन पुनः हासिल करेंगे।
इसीलिए आगे प्रेरणा दी गई है कि-"भाई ! अगर तुम अपना कल्याण चाहते हो तो कषायों का पूर्णतया त्याग करो और रत्नत्रय को भी मिट्टी में मिला देने वाले आत्मा के घोर शत्र मिथ्यात्व के समीप मत फटको ।"
मिथ्यात्वी पुरुष न तो अपना भला कर पाते हैं और न दूसरों को ही उनका भला करने देते हैं, क्योंकि अपने कुतर्कों के द्वारा वे अच्छे-अच्छे धर्मपरायण व्यक्तियों को भी गुमराह कर डालते हैं । अतः ऐसे व्यक्तियों से सदा दूर रहना चाहिए तथा उनकी संगति से अपने आपको बचाना चाहिए।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org