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________________ ऊँघो मत पंथीजन संगति का अद्भुत परिणाम एक चित्रकार अपनी कला में बड़ा ही निपुण था । वह जैसी आकृति देखता, ठीक वैसा ही चित्र बना देता था । एक बार उसने एक बालक का चित्र बनाया । बालक अत्यन्त सुन्दर था और उसके चेहरे पर अपार सरलता, सौम्यता एवं शान्ति झलकती थी । चित्र ठीक वैसा ही बना और चित्रकार ने उसे बेचा नहीं, वरन् अपनी चित्रशाला में लगा दिया । सदा उसे देखता और स्वयं ही मुग्ध हो जाता था । ३२३ कुछ वर्ष निकल गये और एक दिन उसे विचार आया - " मैं इस चित्र के विरोधी गुणों वाला भी एक चित्र बनाऊँ तो इसका महत्व और भी बढ़ जायगा ।" अपनी इस भावना के अनुसार वह किसी अत्यन्त दुर्जन एवं कुरूप व्यक्ति को खोजने लगा, पर किसी की आकृति चित्र बनाने के लिए उसे पसन्द नहीं आई । आखिर एक दिन वह नगर के जेलखाने में जा पहुँचा और जेलर से अपने आने का अभिप्राय बताया । जेलर हँस पड़ा और चित्रकार को भी कवियों के समान मौजी मानकर बोला - "आप अन्दर चले जाइये और अपनी पसन्द का व्यक्ति खोज लीजिये ।" चित्रकार जेल के अन्दर गया और बुरे से बुरे चेहरे की खोज करने लगा । अचानक ही उसे सींखचों के पास बैठा हुआ एक युवक दिखाई दिया। उम्र अधिक न होने पर भी उसका चेहरा बड़ा विद्रूप था और कुटिलता तथा नृशंसता की छाप उस पर स्पष्ट दिखाई दे रही थी । चित्रकार ने अपने विचारों के अनुसार उसका चेहरा चित्र बनाने के लिए पसन्द किया और उसके समीप जाकर उसका नाम एवं परिचय पूछा । किन्तु ज्योंही उस युवक ने अपना परिचय दिया; चित्रकार स्तब्ध होकर काठ के समान खड़ा रह गया । यही नौजवान पूर्व में वह भोला-भाला, अत्यन्त कान्तिमान एवं सरलता की साकार प्रतिमा के समान हँसता-खेलता बालक था, जिसका चित्र बनाकर चित्रकार वर्षों से मुग्ध होता चला आ रहा था । इस समय उसे देखकर वह बड़ा चकित हुआ और पूछ बैठा Jain Education International " तुम्हारी यह दशा ? किसने तुम्हारे बाल्यावस्था के उस सौन्दर्य को, हृदय की सरलता, निष्कपटता एवं सौम्यता को इस कुरूपता में बदल दिया ?" " संगति ने ।” युवक इतना ही बोला और चुप हो गया । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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