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________________ ऊंघो मत पंथीजन.. ३२१ "बहरे हो क्या ? एक बार बता तो दिया कि शांतिचन्द्र है।" स्वामीजी ने क्रोध से उत्तर दिया। ___ नाम पूछने वाला व्यक्ति फिर चुप हो गया और अपने हाथ में रही हुई माला फेरने लगा। किन्तु, थोड़ी देर बाद फिर बोला-"महाराज, मेरी स्मरण शक्ति बड़ी कमजोर है, कोई भी बात तुरन्त भूल जाता हूँ आपने अपना नाम क्या बताया था .....?" ____ अब तो स्वामीजी से रहा नहीं गया और वे पास में रखा हुआ डंडा लेकर उसे मारने दौड़े। मारे गुस्से के उनकी आँखें लाल हो गईं। प्रश्नकर्ता इस घटना के लिए तैयार ही था अतः तुरन्त महात्माजी की पहुंच से बाहर होकर बोला_ "गुरुदेव ! अभी तो आपने इतनी देर तक उपदेश दिया था कि-'चाहे कोई हजार गालियाँ ही क्यों न दे, प्रत्येक व्यक्ति को उन्हें पूर्ण समता एवं शांति से सहन करना चाहिए और तनिक भी क्रोध मन में नहीं आने देना चाहिए।' मैंने तो आपको एक भी गाली नहीं दी, केवल आपका नाम पूछा था। फिर भला आप इतने क्रोधित क्यों हुए ? क्या ऐसे क्रोध से कर्म-बन्धन नहीं होता ?" उस व्यक्ति की यह बात सुनकर महात्माजी पर मानो घड़ों पानी पड़ गया। उन्हें भली-भाँति महसूस हो गया कि कोरी ज्ञान की बातें करने से तनिक भी लाभ नहीं होता, जब तक उन्हें आचरण में न उतारा जाय । क्रोध न करने का उपदेश देकर मैं स्वयं ही बिना किसी वजह के आग-बबूला हो गया, इससे लगता है कि मेरा ज्ञान अब तक निष्फल साबित हुआ है। यह विचार कर महात्मा जी ने तब तक उपदेश नहीं दिया, जब तक कि उनके मन से क्रोध ही नहीं वरन् कषायमात्र का नाश नहीं हो गया। इसी प्रकार आस्ट्रिया के एक बादशाह की कब्र पर लिखा हुआ है-"यहाँ पर एक ऐसा व्यक्ति सोया है, जिसके पास ज्ञान का अक्षय भण्डार था, असंख्य उत्तम विचार थे, किन्तु अफसोस कि वह अपने जीवन में एक भी कार्य सम्पन्न नहीं कर सका।" कहने का अभिप्राय यही है कि सम्यक् दर्शन एवं सम्यक्ज्ञान को जब तक क्रिया या आचरण में नहीं लाया जाता तब तक वह व्यर्थ होता है, दूसरे शब्दों में उनका होना न होना बराबर हो जाता है । तो कविता में यही कहा गया है कि मनुष्य ने दर्शन एवं ज्ञान पाकर भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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