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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
सम्यक्दर्शन होने पर भी सत्-चारित्र न होता। हुआ कदाचित् तो उसके पालन करने में रोता ॥ प्रबल पूण्य से रत्नत्रय को अगर कभी भी पाया। तो कषाय के प्रबल वेग ने उसको हाय मिटाया ॥ पाया था जो दिव्ययान भव-सागर से तरने को। जो की थी तैयारी भारी मुक्ति वधू वरने को। मटियामेट हुआ सारा फिर दुर्गति सन्मुख आई।
यों कषाय के एक वेग ने तीव्र आग धधकाई । पद्यों में बताया गया है कि इस जीव को कर्मों के कारण कैसी-कैसी स्थिति में से गुजरना पड़ा है। निगोद से निकलकर अनन्त काल तक नाना पर्याय धारण करते हुए उसने घोर दुःख उठाये और महा मुश्किल से दीर्घजीवन, उच्चकुल और आर्य क्षेत्र प्राप्त किया। पर किसी प्रकार सम्यक्ज्ञान और दर्शन हासिल करके भी इन्द्रियों के वश में बना रहा और चारित्र का पालन नहीं कर सका । परिणाम यह हुआ कि गधे पर लादे हुए रत्नों के बोझ के समान ज्ञान मात्र बोझ बना रहा, उसका कोई लाभ नहीं मिला । एक छोटा-सा उदाहरण हैज्ञान आचरण में नहीं उतारा गया
एक महात्माजी किसी स्थान पर लोगों को धर्मोपदेश दे रहे थे। अपने उपदेश में उन्होंने कहा- "प्रत्येक व्यक्ति को कषायों का त्याग करना चाहिए, क्योंकि कषायों से कर्मों का बन्धन होता है । चाहे कैसी भी परिस्थिति क्यों न सामने हो और कोई गालियाँ भी क्यों न दे मनुष्य को क्रोध न करते हुए पूर्ण समभाव रखना चाहिए।" इसी प्रकार काफी देर तक महात्मा जी क्रोध आदि कषायों को त्यागने का तथा शांति रखने का उपदेश देते रहे । अन्त में प्रवचन समाप्त हुआ और उपस्थित श्रोता वहाँ से उठ-उठकर अपने घरों को चल दिये पर एक व्यक्ति वहाँ बैठा रहा । कुछ देर पश्चात् उसने महात्माजी से पूछा
"महाराज ! आपका नाम क्या है ?"
महात्माजी एक पुस्तक को उलट-पुलट रहे थे अतः बिना सिर ऊँचा किये बोले-"शांतिचन्द्र ।" __ व्यक्ति यह सुनकर कुछ देर चुपचाप बैठा रहा, पर उसके बाद फिर पूछा"महात्माजी आपका नाम ... ... .?"
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