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हे धर्म ! तू ही जग का सहारा
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भी आत्म-समाधि में लीन हो गये थे । क्या तुम्हें जहाज के डगमगाने से प्राण जाने का भय नहीं हुआ था ?" __ वह व्यक्ति तनिक मुस्कराकर बोला-"बन्धुओ, जब तक मैंने धर्म का मर्म और समाधि-भाव का अर्थ नहीं समझा था, तब तक मैं भी तूफान से बहुत डरता था। किन्तु तुम लोगों की समाधि पर की गई तत्त्व-चर्चा से मैंने उसका महत्व समझ लिया और समुद्र में तूफान के आते ही मैं समाधिपूर्वक अपने अन्दर के विशाल धर्म-द्वीप पर जा बैठा । मैंने समझ लिया था कि इस द्वीप तक तूफान से उठी हुई कोई भी लहर नहीं आ सकती।"
उस ज्ञानी पुरुष की यह बात सुनते ही प्रश्न करने वाले सभी बड़े लज्जित हुए और समझ गये कि खूब तर्क-वितर्क करने से और धर्म के मर्म को शब्दों के द्वारा समझ लेने से ही कोई लाभ नहीं होता । लाभ तभी होता है, जबकि थोड़े कहे गये या सुने हुए को जीवन में उतारा जाय । __ कहने का अभिप्राय यही है कि जो मुमुक्षु धर्म की शरण लेता है, धर्म उसकी रक्षा अवश्य करता है । कवि ने आगे बड़े सुन्दर शब्दों में धर्म के परिवार के विषय में बताया है
माता दया है जननी मनोज्ञा, सम्यक्त्व तेरा सुपिता कहाता। भाई क्षमा मार्दव आर्जवादि, हैं साम्यभावादि सपूत तेरे ।। जो तू दया-प्रेरित हो न आता, संसार में जो न सुधा बहाता । स्वर्गीय आलोक नहीं दिखाता, तो दीखता रौरव का नजारा ।। दानादि हैं रूप अनेक तेरे, जो विश्व को स्वर्ग बना रहे हैं। निष्पाप निस्ताप विशुद्ध तेरा, है चित्त ही आलय एक रम्य ।।
कहा गया है- "हे धर्म ! तुम्हारा तो सम्पूर्ण कुल ही जगत के लिए मंगलमय है । क्योंकि तुम्हारी मनोज्ञ माता दया है और सम्यक्त्व पिता है ।"
वस्तुतः सम्यक्त्व के आने पर ही आत्मा में धर्म उत्पन्न होता है और सम्यक्त्वी जीव जिस प्रकार धागा पिरोई हुई सुई खोती नहीं, मिल ही जाती है, उसी प्रकार संसार में परिभ्रमण करके भी अन्त में मुक्ति-धाम को प्राप्त कर लेता है । सम्यक्त्व की महत्ता बताते हुए योगशास्त्र में कहा गया है
स्थैर्य प्रभावना भक्तिः कौशलं जिनशासने।
तीर्थ सेवा च पञ्चापि, भूषणानि प्रचक्षते ॥ अर्थात्-सम्यक्त्व के पाँच अमूल्य भूषण हैं-(१) धर्म में स्थिरता, (२) धर्म की प्रभावना-उपदेशादि के द्वारा, (३) जिन शासन की भक्ति, (४)
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