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________________ ३१२ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग अज्ञानी व्यक्तियों को धर्म का रहस्य समझाने की निपुणता तथा (५) साधु-साध्वी एवं श्रावक-श्राविका, इन चारों तीर्थों की सेवा भावना । जो भव्य पुरुष सम्यक्त्व की प्राप्ति कर लेता है, वह इन गुणों से विभूषित होकर धर्म को सच्चे मायने में धारण करता है । इसीलिए उसे कवि ने धर्म का जनक बताया है । आगे कहा है-मुनियों के दस धर्म जो-क्षमा, मुक्ति, आर्जव, मार्दव, लाघव, सत्य, संयम, तप, त्याग एवं ब्रह्मचर्य हैं, वे तेरे भाई हैं और साम्य-भाव आदि उत्तम विचार तेरे सुपुत्र हैं। आगे प्रशस्ति करते हुए कृतज्ञतापूर्ण शब्दों में धर्म के प्रति आभार-प्रदर्शन है- "हे धर्म ! अगर तू अपनी माता दया से प्रेरित होकर इस संसार में नहीं आता और आत्मा की अनन्त ज्योति का आलोक नहीं दिखाता तो निश्चय ही इस पृथ्वी पर रौरव नरक के जैसा दृश्य दिखाई देता । क्योंकि मानव का मन' एक असीम सागर है, जिसमें क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह, ममता एवं आसक्ति आदि के भयानक तूफान उठा करते हैं । छद्मस्थ होने के कारण यह स्वाभाविक भी है, किन्तु इन तूफानों से बचने के लिए मनुष्य अपनी आत्मा में स्थित धर्म रूपी उच्च द्वीप पर पहुँचकर तब तक वहाँ निरापद होकर ठहर सकता है, जब तक कि वे तूफान पुनः शान्त नहीं हो जाते ।" "अगर ऐसा न होता, अर्थात् मानस में धर्म-द्वीप का अस्तित्व न होता तो विषय-विकारों, कामनाओं और इच्छाओं की तरंगों के थपेड़ों से घबराकर मनुष्य बाह्य जगत में भी मार-काट, खून-खराबी करता रहता एवं नाना प्रकार के पापों का उपार्जन करने में ही अपना सम्पूर्ण जीवन निरर्थक बना लेता। उसे कभी भी सन्तोष, शान्ति, सुख-चैन या समता नसीब नहीं होती और इसीलिए यह मानव लोक भी नरकवत् बन जाता।" ___ "किन्तु हे धर्म ! तूने जगत के निरीह प्राणियों पर दया करके अपने नाना रूपों से इन्हें सन्मार्ग पर लाने का प्रयत्न किया है। दान, शील, तप, भाव, समत्व, त्याग एवं सहानुभूति आदि सभी तेरे ही तो रूप हैं, जिन्हें अपनाकर महापुरुष इस लोक को स्वर्ग बनाये हुए हैं। यही नहीं, अगर स्वर्गलोक से इस भूलोक की तुलना की जाय तो स्वर्ग से यह लोक उत्तम माना जा सकता है । वह क्यों ? इसलिए कि स्वर्ग के देव केवल प्राप्त सुखों का भोग तो करते हैं किन्तु तेरी आराधना करके संसार-मुक्त होने का प्रयत्न नहीं करते । पर इस लोक में महा-मानव चक्रवर्ती एवं महान् सम्राट होकर भी मिथ्या सुखों को ठोकर मारकर केवल तुझे साथ रखते हैं तथा तेरी कृपा से शाश्वत सुख प्राप्त करने के लिए स्वर्ग की भी परवाह न करते हुए मुक्ति-धाम तक जा पहुंचते हैं । ऐसा वे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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