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________________ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग "तेरी खातिर जो प्राण त्याग देता है, उसका काल रूपी पाश भी सदा के लिए टूट जाता है । तू ही उन सबको सब प्रकार के दुखों से मुक्त करता है, जो तेरी रक्षा करते हैं । किन्तु जो मूर्ख तेरी आराधना नहीं करते और अपनी आत्मा से बाहर कर देते हैं वे महान् दुखों के भागी बनते हैं तथा अनन्त काल तक संसार में भटकते रहते हैं । स्पष्ट है कि वे ही भव्य पुरुष जो पवित्र और निर्मल भावनाओं के साथ तेरी आराधना करते हैं, मानव जीवन का सच्चा लाभ हासिल कर लेते हैं । " ३१० श्री उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है- जरामरण वेगेणं, बुज्झमाणाण पाणिणं । धम्मो दोवो पट्ठा य, गई सरणमुत्तमं ॥ अर्थात्--- जरा और मरण के प्रवाह में डूबते हुए प्राणियों के लिए धर्म ही द्वीप है, गति है और उत्तम शरण का स्थान है । धर्मद्वीप का अवलम्बन कहते हैं कि एक बार अनेक यात्री किसी विशाल जहाज में बैठकर यात्रा कर रहे थे । वहाँ कुछ कार्य न होने से कुछ व्यक्ति तत्त्व-चर्चा में लगे हुए थे तथा समाधि भाव की महत्ता पर एक से बढ़कर एक दलीलें पेश कर रहे थे । ठीक उसी समय समुद्र में अचानक ही भीषण तूफान आ गया और वह जहाज पत्ते के समान डगमगाने लगा । लोग यह देखकर बहुत घबराये और बढ़- बढ़कर समाधिभाव की महत्ता को साबित करने वाले लोग व्याकुल होकर इधर से उधर दौड़-भाग करने लगे । किन्तु एक व्यक्ति जो प्रारम्भ से ही चुपचाप बैठा था तथा वाद-विवाद में तनिक भी भाग नहीं ले रहा था वह तूफान से जहाज के डोलते ही आँखें बन्द कर समाधि में लीन हो गया । न उसके चेहरे पर भय का भाव था और न ही व्याकुलता का । आत्मिक शान्ति की दिव्य आभा उसके मुख मण्डल को और भी तेजस्वी बनाये हुई थी । कुछ देर बाद तूफान थमा और जहाज पुनः पूर्ववत् चलने लगा । यह देखकर लोग शान्त हुए तथा अपनी घबराहट पर काबू पाते हुए सुस्थिर होकर बैठे। उन्होंने देखा कि तूफान के रुक जाने पर ही समाधिस्थ व्यक्ति ने भी अपनी आँखें खोली हैं और ध्यान समाप्त किया है । सभी व्यक्ति हैरत से उसे देखने लगे और बोले "भाई ! तूफान के कारण हमारी तो जान सूख गई थी पर तुम हो कि और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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